Friday, February 24, 2012

कैसा हिन्‍दू... कैसी लक्ष्‍मी!

देश के पुराने अंगरेजी अखबार ने हिन्‍दू नाम के साथ प्रतिष्‍ठा अर्जित की है, पिछले दिनों इस हिन्‍दू पर लक्ष्‍मी नामधारी पत्रकार ने ऐसा धब्‍बा लगाया है, जिस पर अफसोस और चिन्‍ता होती है। इस मामले का उल्‍लेख मेरी पिछली पोस्‍ट 36 खसम पर है।

रायपुर से प्रकाशित समाचार पत्र दैनिक 'छत्‍तीसगढ़ वॉच' ने इसकी सुध ली है।
20 फरवरी, मंगलवार को मुखपृष्‍ठ पर प्रकाशित समाचार 
21 फरवरी, बुधवार को अंतिम पृष्‍ठ पर प्रकाशित समाचार 
इसके अलावा ललित शर्मा जी ने फेसबुक पर तथा वरुण कुमार सखाजी ने भड़ास पर इसकी चर्चा अपने-अपने ढंग से की है। इस बीच पूरे मामले को गंभीरता से लेते हुए अध्‍यक्ष, छत्‍तीसगढ़ राज्‍य महिला आयोग के हस्‍ताक्षर युक्‍त प्रेस विज्ञप्ति में उल्‍लेख है कि आयोग, लेखिका को नोटिस जारी कर स्‍पष्‍टीकरण मांगेगा और कार्यवाही करेगा।
इस संचार युग में यह खोज-खबर 'द हिन्‍दू' को होगी ही, लेकिन शायद बड़े पत्र-पत्रकार को 'छोटी-मोटी' बात की परवाह कहां... सवाल कि ये कैसा हिन्‍दू और ये कैसी लक्ष्‍मी है?

Saturday, February 18, 2012

36 खसम

छत्‍तीसगढ़ से जुड़ी किंवदंती? पर दो स्‍थानीय लोगों की उत्‍तेजक बातचीत से आह्लादित पत्रकार सुश्री लक्ष्‍मी शरथ (Lakshmi Sharath) ने बस्‍तर, छत्‍तीसगढ़ पर यात्रा-वृत्‍तांत लिखा है, शीर्षक है - CHATTISGARH: Watching in delight as two locals heatedly discuss the legend associated with the State

लेख में कहा गया है- The local women saw Sita with two men and exclaimed she had two husbands. “Sita immediately retorted that each of these women will have Chattison (36) husbands,” says Mumtaj as we break into laughter. Toppoji and Mumtaj continue to discuss how most women in Chhattisgarh do have multiple husbands, although Mumtaj adds hurriedly: “Not everybody though.

अनुवाद कुछ इस तरह होगा- ''स्थानीय महिलाओं ने दो पुरुषों के साथ सीता को देखा और कहा कि इसके तो दो पति हैं, सीता ने तत्‍क्षण व्‍यंग्‍यपूर्वक कहा, इनमें से प्रत्येक औरत के छत्‍तीसों (36) पति हों। मुमताज के ऐसा कहते ही हम ठठाकर हंस पड़े । टोप्‍पोजी और मुमताज आगे बात करते रहे कि कैसे छत्‍तीसगढ़ की अधिकतर महिलाओं के बहुत सारे खसम होते हैं यद्यपि, मुमताज ने जल्‍दी से कहा, सबके साथ नहीं।''
सुश्री शरथ ने लांछनापूर्ण लेखन कर, बरास्‍ते विवाद, धार्मिक भावना और छत्‍तीसगढ़ की अस्मिता को चोट पहुंचाने का भर्त्‍सना-योग्‍य तथा अभद्र कार्य किया है। पाश्‍चात्‍य बौद्धिक जगत से प्रेरित, भ्रमित और गैर-जिम्‍मेदार लेखक, तात्‍कालिक प्रसिद्धि और बिकाऊपने के लिए ईश निन्‍दा का भी रास्‍ता अपना लेते हैं, उनका यह लेखन चर्चित होने का ऐसा ही ओछा और सस्‍ता हथकण्‍डा दिखता है।

'द हिन्‍दू' जैसे अखबार में ऐसी सामग्री प्रकाशित होना चिंताजनक है और इस पूरे मामले में मुझे (बस्‍तर, छत्‍तीसगढ़ में रहे श्री पा ना सुब्रहमनियन तथा छत्‍तीसगढ़ में रचे-पचे डा. बी के प्रसाद सहित), हम सबके मर्यादित बने रहने पर अफसोस हो रहा है।

Sunday, February 12, 2012

रुपहला छत्‍तीसगढ़

'जय शंकर', हबीब जी के नया थियेटर का अभिवादन-संबोधन रहा है। 'पीपली लाइव' के पात्र इसका अनुकरण करते हैं तब लगता है कि हम नया थियेटर के किसी वर्कशाप में उपस्थित हैं। फिल्‍म आरंभ होती है हबीब तनवीर और नया थियेटर को धन्‍यवाद देते हुए। निर्माता आमिर खान हबीब जी से जुड़े रहे हैं तो फिल्‍म के निर्देशक दम्पति अनुशा रिजवी और महमूद फारूकी (सह-निर्देशक) हबीब जी के करीबी रहे हैं। इस सिलसिले के चलते फिल्म के नायक 'नत्था' यानि ओंकार दास मानिकपुरी के साथ छत्तीसगढ़वासी (नया थियेटर के) कलाकारों का लगभग पूरा समूह, चैतराम यादव, उदयराम श्रीवास, रविलाल सांगड़े, रामशरण वैष्णव, मनहरण गंधर्व, और लता खापर्डे फिल्म में हैं। पात्र शैल सिंह- अनूप रंजन पांडे के पोस्‍टर और नारों की झलक फिल्‍म में जगह-जगह है। शुरुआती एक दृश्‍य में नत्‍था, लोकप्रिय छत्‍तीसगढ़ी ददरिया 'आमा ल टोरेंव...' की पंक्तियां गाते, जाता दिखाया गया है।

फिल्‍म में 'महंगाई डायन' के अलावा गीत है 'चोला माटी के हे राम'। लता मंगेशकर ने आमिर खान को शुभकामनाएं दीं- ''आपने लोक गीत गायकों से इतने अलग ढंग का गाना रिकॉर्ड कराया। आप हमेशा कुछ नया और अलग प्रयोग करते हैं।'' मानों इस ट्‌वीट में वे गीत को बरबस गुनगुना भी रही हैं।
छत्‍तीसगढ़ी गीत गाने की तैयारी में
लता जी, संगीतकार कल्‍याण सेन के साथ
वैसे लता जी, ऊषा मंगेशकर के साथ सन 2005 में छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म 'भकला' के लिए गीत 'छुट जाही अंगना...' गा चुकी हैं। संयोगवश इस गीत की पृष्‍ठभूमि विवाह (सास-बहू) और विछोह यानि राग-विराग का द्वंद ही है। 'चोला माटी के ...' प्रायोगिक लोक गीत ही है, जो अब इस फिल्म के गीत के रूप में जाना जाने लगा। काफी पहले से सुनते आए इस गीत की पंक्तियां यहां नगीन तनवीर के ही गाये हबीब जी के जीवन-काल में रिकॉर्ड हो चुके गीतों की सीडी से ली गई है। दोनों में कोई खास फर्क नहीं है। गीत के बोल हैं -

चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा, चोला माटी के हे रे।
द्रोणा जइसे गुरू चले गे, करन जइसे दानी
संगी करन जइसे दानी
बाली जइसे बीर चले गे, रावन कस अभिमानी
चोला माटी के .....
कोनो रिहिस ना कोनो रहय भई आही सब के पारी
एक दिन आही सब के पारी
काल कोनो ल छोंड़े नहीं राजा रंक भिखारी
चोला माटी के .....
भव से पार लगे बर हे तैं हरि के नाम सुमर ले संगी
हरि के नाम सुमर ले
ए दुनिया माया के रे पगला जीवन मुक्ती कर ले
चोला माटी के .....

फिल्‍म की म्‍यूजिक लांचिंग से लौटे कोल्हियापुरी, राजनांदगांव निवासी अमरदास मानिकपुरी ने बताया कि शुरुआती दौर में 'चोला माटी के' गीत को टोली के फिदाबाई, मालाबाई, भुलवाराम, बृजलाल आदि गाया करते थे लेकिन तब से लेकर फिल्‍म के लिए हुई रिकार्डिंग और म्‍यूजिक लांचिंग के लाइव शो में भी मांदर की थाप उन्‍हीं की है।

इंटरनेट पर उपलब्‍ध इस गीत के फिल्‍मी संस्‍करण के बोल अंगरेजी-रोमन में हैं (हिन्‍दी फिल्‍मों का कारोबार इसी तरह चलता है) और जाहिर है कि किसी छत्‍तीसगढ़ी जानने वाले की मदद नहीं ली गई है, इसलिए यहां बोल में, भरोसा, दानी व अभिमानी के बदले क्रमशः बरोसा, दाहिक व बीमाही जैसी कई भूलें हैं। गीत के गायक और संगीतकार का नाम नगीन तनवीर और गीतकार, गंगाराम सखेत अंकित है। फिल्‍म में एक कदम आगे बढ़कर स्‍पष्‍ट किया गया है कि गीत की धुन मध्‍यप्रदेश के गोंड़ों की है और गीतकार छत्‍तीसगढ़ के लोक कवि हैं।

गीत के संदर्भ और पृष्‍ठभूमि की बात आगे बढ़ाएं। यह गीत छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती मंडलाही झूमर करमा धुन में है, जिसका भाव छत्तीसगढ़ के पारम्परिक कायाखंडी भजन (निर्गुण की भांति) अथवा पंथी गीत की तरह (देवदास बंजारे का प्रसिद्ध पंथी गीत- माटी के काया, माटी के चोला, कै दिन रहिबे, बता ना मो ला) है। इसी तरह का यह गीत देखें -
हाय रे हाय रे चंदा चार घरी के ना
बादर मं छुप जाही चंदा चार घरी के ना
जस पानी कस फोटका संगी
जस घाम अउ छइंहा
एहू चोला मं का धरे हे
रटहा हे तोर बइंहा, रे संगी चार घरी के ना।

अगर हवाला न हो कि यह गीत खटोला, अकलतरा के एक अन्जान से गायक-कवि दूजराम यादव की, लगभग सन 1990 की रचना है तो ('पानी कस फोटका' का साम्‍य गुलजार के 'बुलबुला है पानी का' से याद करते हुए) यह झूमर करमा का पारंपरिक लोक गीत मान लिया जावेगा। यह चर्चा का एक अलग विषय है, जिसके साथ पारंपरिक पंक्तियों को लेकर नये गीत रचे जाने के ढेरों उदाहरण हैं।

परम्‍परा की तलाश में एक और तह पर चलें- छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले का एक बड़ा भाग प्राचीन महापाषाणीय (मेगालिथिक) शवाधान संस्‍कृति के प्रमाण युक्त है। यहां सोरर-चिरचारी गांव में 'बहादुर कलारिन की माची' नाम से प्रसिद्ध स्थल है और इस लोक नायिका की कथा प्रचलित है। शवाधान क्षेत्र की संरचना अवशेष को बहादुर कलारिन की माची मानना और इस पृष्‍ठभूमि पर तैयार नाटक में शरीर की नश्‍वरता का गीत 'चोला माटी के...' के संयोग में तो काव्‍य सी तरलता भी है। हबीब जी ने इसे आधार बनाकर 'बहादुर कलारिन' नाटक रचा, जिसमें प्रमुख भूमिका फिदाबाई (अपने साथियों में फीताबाई भी पुकारी जाती थीं।) निभाया करती थीं।

फिदाबाई मरकाम की प्रतिभा को छत्‍तीसगढ़ी लोकमंचों के पुरोधा दाऊ मंदराजी ने पहचाना था। छत्तीसगढ़ी नाचा में नजरिया या परी भी पुरुष ही होते थे लेकिन नाचा में महिला कलाकार की पहली-पहल उल्लेखनीय उपस्थिति फिदाबाई की ही थी। वह हबीब जी के नया थियेटर से जुड़ कर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहुंचीं। तुलसी सम्मान, संगीत नाटक अकादेमी सम्मान प्राप्त यह कलाकार चरनदास चोर की रानी के रूप में अधिक पहचानी गईं। फिदाबाई के पुत्र मुरली का विवाह धनवाही, मंडला की श्यामाबाई से हुआ था। पारंपरिक गीत 'चोला माटी के हे राम' का मुखड़ा हबीब जी ने श्यामाबाई की टोली से सुना और इसका आधार लेकर उनके मार्गदर्शन में गंगाराम शिवारे (जिन्हें लोग गंगाराम सिकेत भी और हबीब जी सकेत पुकारा करते थे) द्वारा सन 1978 में तैयार हुआ। यह गीत पारागांव, महासमुंद के 'बहादुर कलारिन' वर्कशाप में नाटक का हिस्‍सा बना। जैसे 'सास गारी देवे' पारंपरिक ददरिया सन 1973 में हबीब जी के रायपुर नाचा वर्कशाप में रचे नाटक 'मोर नांव दमांद, गांव के नांव ससुरार' में गीत बन कर शामिल हुआ था।

'दिल्ली 6' का गीत 'सास गारी देवे' गीत थोड़े फर्क से छत्तीसगढ़ी फिल्म 'मया दे दे मयारू' में भी आया है, लेकिन मूलतः रिकार्डेड हबीब तनवीर जी की टोली के गाये इस गीत के बोल हैं -

सास गारी देवे, ननंद मुंह लेवे, देवर बाबू मोर।
संइया गारी देवे, परोसी गम लेवे, करार गोंदा फूल।
केरा बारी में डेरा देबो चले के बेरा हो॥
आए बेपारी गाड़ी म चढ़िके।
तो ल आरती उतारव थारी म धरिके हो॥ करार...
टिकली रे पइसा ल बीनी लेइतेंव।
मोर सइकिल के चढ़इया ल चिन्ही लेइतेंव ग॥ करार...
राम धरे बरछी लखन धरे बान।
सीता माई के खोजन बर निकलगे हनुमान ग॥ करार...
पहिरे ल पनही खाये ल बीरा पान।
मोर रइपुर के रहइया चल दिस पाकिस्तान ग॥ करार...

लगभग 35 साल पुराना रिकार्ड, जिसके 'ए' साइड में 'तो ल जोगी जानेंव रे भाई, तो ल साधु जानेंव ग' था और 'बी' साइड में यह गीत 'सास गारी देवे' था, जिसके समूह स्वर में हबीब जी की आवाज साफ पहचानी जा सकती है, किंतु पूरे महत्‍व के साथ भुलवाराम यादव, बृजलाल लेंझवार, लालूराम और बरसन बाई, चम्पा जैसे नामों का उल्लेख जरूरी है, जिनके स्वर में यह गीत रिकार्ड हुआ था। बताया जाता है कि यह गीत रघुवीर यादव से होकर एआर रहमान तक पहुंचा और अब इस पारंपरिक धुन वाले गीत के संगीतकार के रूप में उनका नाम है। गीत के फिल्‍मी संस्‍करण के गीतकार प्रसून जोशी तथा गायिकाएं रेखा भारद्वाज, श्रद्धा पंडित और सुजाता मजुमदार हैं, इसके बोल हैं-

सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे, ससुराल गेंदा फूल
सास गारी देवे, देवर समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का अंगना, भावे डेरा पिया का हो, सास गारी ...
सैंया है व्‍यापारी, चले है परदेस सुरतिया निहारूं,
जियरा भारी होवे, ससुराल ...
बुश्‍शर्ट पहिने, खाई के बीड़ा पान पूरे रायपुर से अलग है,
सैंया जी की शान, ससुराल ...

इस पारंपरिक ददरिया के मूल बोल और धुन, लोक की थाती है। ददरिया में पारंपरिक पंक्तियों को लेकर सवाल-जवाब किस्म की आशु तुकबंदियां गाते-गाते ही, राउत नाच के दोहों, बस्‍तर में नाट, जगार आदि के चाखना और सरगुजा के बायर पदों की तरह, गढ़ ली जाती हैं, यानि गायक-गीतकार का फर्क लगभग नहीं होता, इसलिए गाने के साथ जोड़-घटाव, परिवर्तन आसानी से संभव होता है और परम्परा में यह हर गाने वाले के साथ अपना हो जाता है।

इन दोनों गीतों की चर्चा के साथ छत्‍तीसगढ़ के फिल्‍मी रिश्‍तों को याद कर लेना प्रासंगिक होगा। सन 1948/1953 में आई फिल्मिस्‍तान की दिलीप कुमार और कामिनी कौशल अभिनीत 'नदिया के पार' से, फिल्‍मों में छत्‍तीसगढ़ी गीतों का प्रवेश माना जाता है, इसके शुरुआती हिस्‍से में मल्‍लाहों के (किशोर साहू के लिखे) संवाद में तो छत्‍तीसगढ़ी का पुट है लेकिन गीतकार मोती के 'मोरे राजा हो ले चल नदिया के पार' गीत सहित फिल्‍म में कोई छत्‍तीसगढ़ी गीत नहीं है। इसी प्रकार 1960 की फिल्‍म 'माया मछिन्‍दर', जिसमें मनहर देसाई ने मछेन्‍द्रनाथ और (छोटे) राजकुमार ने गोरखनाथ की भूमिका निभाई थी, की चर्चा फिल्‍म में शामिल किसी छत्‍तीसगढ़ी गीत के लिए की जाती है, साथ ही पुरानी बस्‍ती, रायपुर निवासी बहुमुखी प्रतिभा के धनी पहलवान-कवि-गायक मोहनी पोद्दार (सोनी) का ददरिया जैसा ही गीत 'दाई मोर बर मछरी ले दे' रंजीत मूवीटोन की किसी फिल्‍म में शामिल, पहला छत्‍तीसगढ़ी गीत बताया जाता है, किंतु इनकी पुष्टि मेरे स्‍तर पर अब तक संभव नहीं हुई।

सन 1920 में खड़गवां, कोरिया में राजदान मैनेजर बन कर आए, 1943 वाली फिल्‍म रामराज्‍य के राम, प्रेम अदीब की बहन इसी परिवार में ब्‍याही थीं, इसके चलते प्रेम अदीब के बचपन के उन्‍नीस सौ तीसादि दशक के कुछ साल यहां बीते और प्राथमिक शिक्षा हुई। इसी तरह ऋत्विक घटक के मामा के के राय, कोरिया स्‍टेट में अभियंता थे और तब उन्‍नीस सौ चालीसादि दशक में ऋत्विक घटक उनके साथ रहते हुए स्‍कूल की कुछ कक्षाएं यहां पढ़े तो 1959-60 में अपूर संसार का कुछ हिस्‍सा फिल्‍माने सत्‍यजित राय चिरमिरी-बैकुंठपुर आए। लगभग 1964 में सुलक्षणा पंडित ने प्राइमरी स्‍कूली पढ़ाई का एक साल जांजगीर जिले के उसी नरियरा में बिताया, जिस गांव का उल्‍लेख अमृता प्रीतम की कहानी गांजे की कली में है।

16 अप्रैल, 1965 को प्रदर्शित लेखक, निर्माता, निर्देशक मनु नायक की 'कहि देबे संदेस' वस्‍तुतः पहली छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म है, जिसके संगीतकार मलय चक्रवर्ती और गीतकार डॉ. हनुमंत नायडू (राजदीप) हैं। इसके बाद निर्माता विजय कुमार पाण्‍डेय और लेखक-दिगदर्शक निरंजन तिवारी की 1971 में रिलीज 'घर द्वार', जिसके संगीतकार जमाल सेन और गीतकार हरि ठाकुर थे। अब तक छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍मों के लिए लता मंगेशकर, मोहम्‍मद रफी, महेन्‍द्र कपूर, साधना सरगम, कुमार शानू, अनूप जलोटा, विनोद राठौर, उदित नारायण, सुदेश भोंसले, कविता कृष्‍णमूर्ति, सुमन कल्‍याणपुर, मीनू पुरषोत्‍तम, मन्‍ना डे, बाबा सहगल, अनुराधा पौडवाल, सोनू निगम, अभिजीत, बाबुल सुप्रियो और सुरेश वाडकर आदि भी अपना स्‍वर दे चुके हैं।

कुछ और संदर्भों का स्‍मरण। सन 1957 में बनी अर्न सक्‍सडॉर्फ की स्‍वीडिश फिल्‍म के प्रदर्शन से बस्‍तर, गढ़ बेंगाल निवासी दस वर्षीय बालक चेन्‍दरू अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर प्रसिद्ध हुआ। फिल्‍म का नाम 'एन डीजंगलसागा' ('ए जंगल सागा' या 'ए जंगल टेल' अथवा अंगरेजी शीर्षक 'दि फ्लूट एंड दि एरो') था। फिल्‍म में संगीत पं. रविशंकर का है, उनका नाम तब उजागर हो ही रहा था। यह कान फिल्‍म फेस्टिवल 1958 में प्रदर्शित फिल्‍मों की सूची में रही है। उसी दौरान चेन्‍दरू और शेर के साथ उसकी दोस्‍ती पर किताब भी प्रकाशित हुई। सन 1998 में अधेड़ हुए चेन्‍दरू और इस पूरे सिलसिले को नीलिमा और प्रमोद माथुर ने अपनी फिल्‍म 'जंगल ड्रीम्‍स' का विषय बनाया। चेन्‍दरू, इन दिनों अपने गांव में 'गैर-फिल्‍मी' दिनचर्या बसर कर रहा है, किन्‍तु रूपहले परदे का पहला छत्‍तीसगढ़ी सुपर स्‍टार वही है।

फिदाबाई ने भी विदेशी फिल्‍मों में काम किया है। हार्वे क्रासलैंड निर्देशित सन 1993 में बनी भारत-कनाडाई फिल्‍म 'द बर्निंग सीजन' के लिए भुलवाराम ने गीत गाया है, जिस छत्‍तीसगढ़ी गीत की शुरुआत हिन्‍दी जैसी है-
कोई नहीं है साथी अरे मन तेरा कोई नहीं साथी
भाई बइठे, भतीजा बइठे, बइठे बेटा नाती
इनके आगे में जीव निकलगे, पथरा के कर लिन्‍ह छाती
कोई नहीं है साथी.....

इस क्रम में छत्‍तीसगढ़ के निर्माता-निर्देशक कांतिलाल राठोड़ की 'कंकु' को 1970 का श्रेष्‍ठ गुजराती फीचर फिल्‍म का राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिला और यह इसी साल अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह, शिकागो में भी पुरस्‍कृत हुई। 1980 की मिथुन-स्मिता की कम चर्चित लेकिन महत्‍वपूर्ण हिन्‍दी फिल्‍म 'द नक्‍सलाइट्स' के लिए निर्माता-निर्देशक ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास जगदलपुर में रहे, फिल्‍म का कुछ भाग कुरंदी (कोटपाड़) गांव में फिल्‍माया गया। मणि कौल ने सन 1980 में मुक्तिबोध के 'सतह से उठता आदमी' पर नीला अहमद (नीलू मेघ) की मुख्‍य भूमिका वाली तथा साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार और पं. सुंदरलाल शर्मा सम्‍मान प्राप्‍त विनोद कुमार शुक्‍ल के प्रसिद्ध उपन्‍यास 'नौकर की कमीज' पर सन 2000 में पंकज मिश्रा अभिनीत फिल्‍म बनाई। सन 1981 में सत्‍यजित राय की प्रेमचंद की कहानी पर, छत्‍तीसगढ़ में फिल्‍माई टेली फिल्‍म 'सद्गति' है, जिसमें भैयालाल हेड़उ मुख्‍य भूमिका में तथा बाल कलाकार ऋचा मिश्रा (अब डॉ. ऋचा ठाकुर) हैं। प्रसिद्ध कत्‍थक नृत्‍यांगना वासंती वैष्‍णव, सन 1993 में बनी फिल्‍म 'अनुकंपन' में अपनी भूमिका की चर्चा करती हैं। सरगुजा में हाथियों की पृष्‍ठभूमि पर सन 1994 में बनी माइक पांडे की फिल्‍म 'द लास्‍ट माइग्रेशन', चर्चित और पुरस्‍कृत हुई। सन 2005 में बनी बाल चित्र समिति की फिल्‍म ‘छुटकन की महाभारत’ रायगढ़ के ग्राम भेलवाटिकरा के आसपास फिल्‍माई गई और इस फिल्‍म में वरिष्‍ठ रंगकर्मी अनिल कालेले के अलावा इप्‍टा, रायगढ़ के कलाकारों सहित सरपंच के रूप में अजय आठले की मुख्‍य भूमिका थी।

श्‍याम बेनेगल की चरनदास चोर में नाचा कलाकार लालूराम, मदन निषाद ने और सन 1999 में बनी उनकी फिल्‍म 'समर' में राजकमल नायक ने अभिनय किया है। बस्‍तर पर बेनेगल ने वृत्‍त चित्र बनाया ही, सन 1980 में 'कस्‍तूरी' नामक फीचर फिल्‍म भी बनी, बिमल दत्‍त की इस फिल्‍म में मिथुन चक्रवर्ती, नूतन, श्रीराम लागू, अरविंद देशपांडे जैसे अभिनेता हैं। फिल्‍म की अन्‍य विधाओं व अभिनय में पं. सत्‍यदेव दुबे, अशोक मिश्र, अनुराग बसु, सूरज (जाफर अली) फरिश्‍ता, गोपाल (जी.एम.) भटनागर, संदीप श्रीवास्‍तव, जयंत देशमुख, संजय बत्रा, शंकर सचदेव, सोमेश अग्रवाल, प्रसिद्ध वामन कलाकार राजनांदगांव के श्रीराम नत्‍थू दादा, 'फंस गए रे ओबामा' वाले बस्‍तर के दिनेश नाग और रायगढ़ के स्‍वप्निल कोत्रीवार हैं। छत्‍तीसगढ़ के निर्माता निशांत त्रिपाठी-अभिषेक मिश्रा और निर्देशक मनीष मानिकपुरी की हिन्‍दी फिल्‍म 'आलाप' इसी साल मार्च में प्रदर्शित होने वाली है, फिल्‍म में अमित पुरोहित के साथ रघुवीर यादव-ओंकारदास मानिकपुरी जोड़ी ने भी (यहां जीजा-साला) अभिनय किया है।

भुलाए-से इन गीत-प्रसंगों में छत्तीसगढ़ी रुपहले ख्‍वाबों और सुर-संवाहकों के बहाने अपनी परम्परा-स्‍मृति को खंगालने और ताजी कर लेने का यह वक्‍त है। लोक परम्‍परा की सीमा लांघते हुए छत्‍तीसगढ़ के पहचान का परिशिष्‍ट जुड़ रहा है तो यह मौका है अपनी इकहरी होती याद को संदर्भ के साथ व्यापक करने का, आत्म सम्मान को परम्परा के सम्मान में समाहित करने का। यही लोक-संगीत, परम्परा का सूत्र बनकर संस्कृति को संबल देगा।
मेरी पोस्‍ट क्रमशः दिल्‍ली-6, सास गारी देवे, पीपली में छत्‍तीसगढ़ और छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म में तथा पत्रिकाओं बिलासपुर की 'मड़ई' 2010, रायपुर की 'दशहरा', रायगढ़ की 'रंगकर्म' 2011 और हरिभूमि अखबार के चौपाल 6 अक्‍टूबर 2011 में प्रस्‍तुत मेरे लेखों की जानकारी को एक साथ और अद्यतन कर यहां प्रस्‍तुत किया गया है।

Monday, February 6, 2012

मेला-मड़ई

विविधतापूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में विभिन्न स्वरूप के मेलों का लंबा सिलसिला है, इनमें मुख्‍यतः उत्तर-पूर्वी क्षेत्र यानि जशपुर-रायगढ़ अंचल में जतरा अथवा रामरेखा, रायगढ़-सारंगढ़ का विष्णु यज्ञ- हरिहाट, चइत-राई और व्यापारिक मेला, कटघोरा-कोरबा अंचल का बार, दक्षिणी क्षेत्र यानि बस्तर के जिलों में मड़ई और अन्य हिस्सों में बजार, मातर और मेला जैसे जुड़ाव अपनी बहुरंगी छटा के साथ राज्य की सांस्कृतिक सम्पन्नता के जीवन्त उत्सव हैं। मेला ‘होता’ तो है ही, 'लगता', 'भरता' और 'बैठता' भी है।

गीता का उद्धरण है- 'मासानां मार्गशीर्षोऽहं ...', अगहन को माहों में श्रेष्ठ कहा गया है और यह व्याख्‍या सटीक जान पड़ती है कि खरीफ क्षेत्र में अगहन लगते, घर-घर में धन-धान्य के साथ गुरुवार लक्ष्‍मी-पूजा की तैयारी होने लगती है, जहां लक्ष्‍मी वहां विष्‍णु। इसी के साथ मेलों की गिनती का आरंभ, अंचल की परम्परा के अनुरूप, प्रथम के पर्याय- 'राम' अर्थात्, रामनामियों के बड़े भजन से किया जा सकता है, जिसमें पूस सुदी ग्यारस को अनुष्‍ठान सहित चबूतरा और ध्वजारोहण की तैयारियां होती हैं, द्वादशी को झंडा चढ़ाने के साथ ही मेला औपचारिक रूप से उद्घाटित माना जाता है, तीसरे दिन त्रयोदशी को भण्डारा होता है, इस हेतु दो बड़े गड्ढे खोदे जाते, जिन्‍हें अच्‍छी तरह गोबर से लीप-सुखा कर भंडारण योग्‍य बना लिया जाता। भक्‍तों द्वारा चढ़ाए और इकट्ठा किए गए चावल व दाल को पका कर अलग-अलग इन गड्ढों में भरा जाता, जिसमें मक्खियां नहीं लगतीं। यही प्रसाद रमरमिहा अनुयायियों एवं अन्य श्रद्धालुओं में वितरित होता। संपूर्ण मेला क्षेत्र में जगह-जगह रामायण पाठ होता रहता है। नख-शिख 'रामराम' गोदना वाले, मोरपंख मुकुटधारी, रामनामी चादर ओढ़े रमरमिहा स्त्री-पुरूष मेले के दृश्य और माहौल को राममय बना देते हैं।
मेले में परिवेश की सघनता इतनी असरकारक होती है कि यहां प्रत्येक व्यक्ति, समष्टि हो जाता है। सदी पूरी कर चुका यह मेला महानदी के दाहिने और बायें तट पर, प्रतिवर्ष अलग-अलग गांवों में समानांतर भरता है। कुछ वर्षों में बारी-बारी से दाहिने और बायें तट पर मेले का संयुक्त आयोजन भी हुआ है। मेले के पूर्व बिलासपुर-रायपुर संभाग के रामनामी बहुल क्षेत्र से गुजरने वाली भव्य शोभा यात्रा का आयोजन भी किया गया है। इस मेले और समूह की विशिष्टता ने देशी-विदेशी अध्येताओं, मीडिया प्रतिनिधियों और फिल्मकारों को भी आकर्षित किया है।

रामनामी बड़े भजन के बाद तिथि क्रम में पौष पूर्णिमा अर्थात्‌ छेरछेरा पर्व पर तुरतुरिया, सगनी घाट (अहिवारा), चरौदा (धरसीवां) और गोर्रइया (मांढर) का मेला भरता है। इसी तिथि पर अमोरा (तखतपुर), रामपुर, रनबोर (बलौदाबाजार) का मेला होता है, यह समय रउताही बाजारों के समापन और मेलों के क्रम के आरंभ का होता है, जो चैत मास तक चलता है। जांजगीर अंचल की प्रसिद्ध रउताही मड़ई हरदी बजार, खम्हरिया, बलौदा, बम्हनिन, पामगढ़, रहौद, खरखोद, ससहा है। क्रमशः भक्तिन (अकलतरा), बाराद्वार, कोटमी, धुरकोट, ठठारी की रउताही का समापन सक्ती के विशाल रउताही से माना जाता है। बेरला (बेमेतरा) का विशाल मेला भी पौष माह में (जनवरी में शनिवार को) भरता है। 'मधुमास पुनीता' होते हुए '...ऋतूनां कुसुमाकरः', वसंत ऋतु-रबी फसल तक चलने वाले मेलों के मुख्‍य सिलसिले का समापन चइत-राई से होता है, सरसींवां और भटगांव के चैत नवरात्रि से वैशाख माह के आरंभ तक चलने वाले चइत-राई मेले पुराने और बड़े मेले हैं। सपोस (चंदरपुर) का चइत-राई भी उल्लेखनीय है। चइत-राई का चलन बस्‍तर में भी है।

सिद्धमुनि आश्रम, बेलगहना में साल में दो बार- शरद पूर्णिमा और बसंत पंचमी को मेला भरता है। शरद पूर्णिमा पर ही बरमकेला के पास तौसीर में मेला भरता है, जिसमें अमृत खीर प्रसाद, शरद पूर्णिमा की आधी रात से सूर्योदय तक बंटता है। मान्यता है कि जो तीन साल लगातार यह प्रसाद खाता है वह आजीवन रोगमुक्त रहता है। यह उड़िया-छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक मेल-जोल का मेला है। कुदरगढ़ और रामगढ़, उदयपुर (सरगुजा) में रामनवमी पर बड़ा मेला भरता है। शंकरगढ़ का घिर्रा मेला पूस सुदी नवमी को होता है, जिसमें विभिन्न ग्रामों के रंग-बिरंगे ध्वजों के साथ 'ख्‍याला' मांगने की परम्परा है। लाठी और ढाल लेकर नृत्य तथा 'कटमुंहा' मुखौटेधारी भी आकर्षण के केन्द्र होते हैं। सरगुजा का 'जतरा' यानि घूम-घूम कर लगने वाला मेला अगहन मास के आरंभ से उमको होता हुआ सामरी, कुसमी, डीपाडीह, भुलसी, दुर्गापुर होकर शंकरगढ़ में सम्पन्न होता है। कुंवर अछरिया (सिंघनगढ़, साजा) और खल्लारी का मेला चैत पूर्णिमा पर भरता है।

भौगोलिक दृष्टि से उत्तरी क्षेत्र में सरगुजा-कोरिया अंचल के पटना, बैकुण्‍ठपुर, चिरमिरी आदि कई स्थानों में गंगा दशहरा के अवसर पर मेला भरता है तो पुराने रजवाड़े नगरों में, विशेषकर जगदलपुर में गोंचा-दशहरा का मेला प्रमुख है, किन्तु खैरागढ़ के अलावा खंडुआ (सिमगा), ओड़ेकेरा और जैजैपुर में भी दशहरा के अवसर पर विशाल मेला भरता है और भण्डारपुरी में दशहरा के अगले दिन मेला भरता है। सारंगढ़ अंचल के अनेक स्थलों में विष्णु यज्ञों का आयोजन होता है और यह मेले का स्वरूप ले लेता है, जिन्हें हरिहाट मेला कहा जाता है और मकर संक्रांति पर जसपुर कछार (कोसीर), सहजपाली और पोरथ में मेला लगता है। मकर संक्रांति पर एक विशिष्‍ट परम्‍परा घुन्‍डइया मेला, महानदी में बघनई और सूखा नाला के संगम की त्रिवेणी के पास हथखोज (महासमुंद) में प्रचलित है। यहां भक्‍त स्‍त्री-पुरुष मनौती ले कर महानदी की रेत पर लेट जाते हैं और बेलन की तरह लोटने लगते हैं फिर रेत का शिवलिंग बना कर उसकी पूजा करते हैं। संकल्‍प सहित इस पूरे अनुष्‍ठान को 'सूखा लहरा' लेना कहा जाता है।

क्वांर और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवरात्रियों पर भी मेला भरने का चलन पिछले सालों में बढ़ा है, इनमें झलमला (बालोद) में दोनों नवरात्रि पर बड़े मेले भरते हैं और रतनपुर में इस अवसर पर प्रज्‍ज्वलित होने वाले ज्योति कलशों की संख्‍या दस हजार पार कर जाती है। अकलतरा के निकट दलहा पहाड़ पर नागपंचमी का मेला होता है, जिसमें पहाड़ पर चढ़ने की प्रथा है। विगत वर्षों में कांवड़िया श्रद्धालुओं द्वारा सावन सोमवार पर शिव मंदिरों में जल चढ़ाने की प्रथा भी तेजी से बढ़ी है। पारम्परिक तिथि-पर्वों से हटकर सर्वाधिक उल्लेखनीय कटघोरा का मेला है, जो प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को नियत है। रामकोठी के लिए प्रसिद्ध तेलीगुंडरा, पाटन में भी इसी अवसर पर मेला होता है।

आमतौर पर फरवरी माह में पड़ने वाला दुर्ग का हजरत बाबा अब्दुल रहमान शाह का उर्स, राजनांदगांव का सैयद बाबा अटल शाह का उर्स, लुतरा शरीफ (सीपत), सोनपुर (अंबिकापुर) और सारंगढ़ के उर्स का स्वरूप मेलों की तरह होता है। रायगढ़ अंचल में पिछली सदी के जनजातीय धार्मिक प्रमुख और समाज सुधारक गहिरा गुरु के मेले चिखली, सूरजगढ़, रेंगापाली, लेंध्रा, बरमकेला आदि कई स्थानों पर भरते हैं, इनमें सबसे बड़ा माघ सुदी 11 को ग्राम गहिरा (घरघोड़ा) में भरने वाला मेला है। इसी प्रकार कुदुरमाल (कोरबा), दामाखेड़ा (सिमगा) में माघ पूर्णिमा पर कबीरपंथी विशाल मेले आयाजित होते हैं तथा ऐसे कई अन्य कबीरपंथी जुड़ाव-भण्डारा सरगुजा अंचल में होते रहते हैं। दामाखेड़ा, कबीरपंथियों की महत्वपूर्ण गद्दी है, जबकि कुदुरमाल में कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य धरमदास के पुत्र चुड़ामनदास एवं अन्य दो गुरूओं की समाधियां है। मेले के अवसर पर यहां धार्मिक अनुष्ठानों के साथ कबीरपंथी दीक्षा भी दी जाती है। गुरु घासीदास के जन्म स्थान गिरोदपुरी के विशिष्ट और विस्तृत पहाड़ी भू-भाग में फाल्गुन सुदी 5 से भरने वाले तीन दिवसीय विशाल मेले का समापन जैतखंभ में सफेद झंडा चढ़ाने के साथ होता है। एक लोकप्रिय गीत 'तूं बताव धनी मोर, तूं देखा द राजा मोर, कहां कहां बाबाजी के मेला होथे' में सतनामियों के गिरौदपुरी, खडुवापुरी, गुरुगद्दी भंडार, चटुआ, तेलासी के मेलों का उल्लेख है। 

शिवनाथ नदी के बीच मनोरम प्राकृतिक टापू मदकूघाट (जिसे मनकू, मटकू और मदकूदीप/द्वीप भी पुकारा जाता है), दरवन (बैतलपुर) में सामान्यतः फरवरी माह में सौ-एक साल से भरने वाला इसाई मेला और मालखरौदा का क्रिसमस सप्ताह का धार्मिक समागम उल्लेखनीय है। मदकूदीप में एक अन्य पारम्परिक मेला पौष में भी भरता है। दुर्ग जिला का ग्राम नगपुरा प्राचीन शिव मंदिर के कारण जाना जाता है, किन्तु यहां से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा भी प्राप्त हुई है। पिछले वर्षों में यह स्थल श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ के रूप में विकसित हो गया है। यहां दिसम्बर माह में शिवनाथ उत्सव, नगपुरा नमस्कार मेला का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें जैन धर्मावलंबियों की बड़ी संख्‍या में उपस्थिति होती है। इसी प्रकार चम्पारण में वैष्णव मत के पुष्टिमार्गीय शाखा के अनुयायी पूरे देश और विदेशों से भी बड़ी तादाद में आते हैं। यह स्थान महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्‌य स्थल माना जाता है, अवसर होता है उनकी जयंती, वैशाख बदी 11 का।

आमतौर पर प्रति तीसरे साल आयोजित होने वाले 'बार' में तुमान (कटघोरा) तथा बसीबार (पाली) का बारह दिन और बारह रात लगातार चलने वाले आयोजन का अपना विशिष्ट स्वरूप है। छत्तीसगढ़ी का शब्द युग्म 'तिहार-बार' इसीसे बना है। इस आयोजन के लिए शब्द युग्म 'तीज-तिहार' के तीज की तरह ही बेटी-बहुओं और रिश्तेदारों को खास आग्रह सहित आमंत्रित किया जाता है। गांव का शायद ही कोई घर छूटता हो, जहां इस मौके पर अतिथि न होते हों। इस तरह बार भी मेलों की तरह सामान्यतः पारिवारिक, सामाजिक, सामुदायिक, आर्थिक आवश्यकता-पूर्ति के माध्यम हैं। इनमें तुमान बार की चर्चा और प्रसिद्धि बैलों की दौड़ के कारण होती है। कटघोरा-कोरबा क्षेत्र का बार आगे बढ़कर, सरगुजा अंचल में 'बायर' नाम से आयोजित होता है। 'बायर' में ददरिया या कव्वाली की तरह युवक-युवतियों में परस्पर आशु-काव्य के सवाल-जवाब से लेकर गहरे श्रृंगारिक भावपूर्ण समस्या पूर्ति के काव्यात्मक संवाद होते हैं। कटघोरा क्षेत्र के बार में गीत-नृत्य का आरंभ 'हाय मोर दइया रे, राम जोहइया तो ला मया ह लागे' टेक से होता है। बायर के दौरान युवा जोड़े में शादी के लिए रजामंदी बन जाय तो माना जाता है कि देवता फुरमा (प्रसन्‍न) हैं, फसल अच्‍छी होगी।

रायगढ़ की चर्चा मेलों के नगर के रूप में की जा सकती है। यहां रथयात्रा, जन्माष्टमी और गोपाष्टमी धूमधाम से मनाया जाता है और इन अवसरों पर मेले का माहौल रहता है। इस क्रम में गणेश चतुर्थी के अवसर पर आयोजित होने वाले दस दिवसीय चक्रधर समारोह में लोगों की उपस्थिति किसी मेले से कम नहीं होती। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद इसका स्वरूप और चमकदार हो गया है। इसी प्रकार सारंगढ़ का रथयात्रा और दशहरा का मेला भी उल्लेखनीय है। बिलासपुर में चांटीडीह के पारम्परिक मेले के साथ, अपने नए स्वरूप में रावत नाच महोत्सव (शनिचरी) और लोक विधाओं के बिलासा महोत्सव का महत्वपूर्ण आयोजन होता है। रायपुर में कार्तिक पूर्णिमा पर महादेव घाट का पारंपरिक मेला भरता है।

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात्‌ आरंभ हुआ सबसे नया बड़ा मेला राज्य स्थापना की वर्षगांठ पर प्रतिवर्ष सप्ताह भर के लिए आयोजित होने वाला राज्योत्सव है। इस अवसर पर राजधानी रायपुर के साथ जिला मुख्‍यालयों में भी राज्योत्सव का आयोजन किया गया है। इसी क्रम में विभिन्न उत्सवों का जिक्र उपयुक्त होगा। भोरमदेव उत्सव, कवर्धा (अप्रैल), रामगढ़ उत्सव, सरगुजा (आषाढ़), लोककला महोत्सव, भाटापारा (मई-जून), सिरपुर उत्सव (फरवरी), खल्लारी उत्सव, महासमुंद (मार्च-अप्रैल), ताला महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी), मल्हार महोत्सव, बिलासपुर (मार्च-अप्रैल), बिलासा महोत्सव, बिलासपुर (फरवरी-मार्च), रावत नाच महोत्सव, बिलासपुर (नवम्बर), जाज्वल्य महोत्सव (जनवरी), शिवरीनारायण महोत्सव, जांजगीर-चांपा (माघ-पूर्णिमा), लोक-मड़ई, राजनांदगांव (मई-जून) आदि आयोजनों ने मेले का स्वरूप ले लिया है, इनमें से कुछ उत्सव-महोत्सव वस्तुतः पारंपरिक मेलों के अवसर पर ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रूप में आयोजित किए जाते हैं, जिनमें श्री राजीवलोचन महोत्सव, राजिम (माघ-पूर्णिमा) सर्वाधिक उल्लेखनीय है।

राजिम मेले की गिनती राज्य के विशालतम मेलों में है। विगत वर्षों में राजिम मेले का रूप लघु कुंभ जैसा हो गया है और यह 'श्री राजीवलोचन कुंभ' के नाम से आयोजित हो रहा है। मान्‍यता है कि चारों धाम तीर्थ का पुण्‍य-लाभ, राजिम पहुंचकर ही पूरा होता है। मेले के दौरान कल्पवास और संत समागम से इसके स्वरूप और आकार में खासी बढ़ोतरी हुई है। माघ-पूर्णिमा पर भरने वाले इस मेले का केन्द्र राजिम होता है, महानदी, पैरी और सोंढुर त्रिवेणी संगम पर नदी के बीचों-बीच स्थित कुलेश्‍वर महादेव और ठाकुर पुजारी वाले वैष्‍णव मंदिर राजीवलोचन के साथ मेले का विस्तार पंचक्रोशी क्षेत्र में पटेवा (पटेश्वर), कोपरा (कोपेश्वर), फिंगेश्वर (फणिकेश्वर), चंपारण (चम्पकेश्वर) तथा बम्हनी (ब्रह्मणेश्वर) तक होता है। इन शैव स्थलों के कारण मेले की अवधि पूरे पखवाड़े, शिवरात्रि तक होती है, लेकिन मेले की चहल-पहल, नियत अवधि के आगे-पीछे फैल कर लगभग महीने भर होती थी।
राजिम मेला के एक प्रसंग से उजागर होता मेलों का रोचक पक्ष यह कि मेले में एक खास खरीदी, विवाह योग्‍य लड़कियों के लिए, पैर के आभूषण-पैरी की होती थी। महानदी-सोढुंर के साथ संगम की पैरी नदी को पैरी आभूषण पहन कर पार करने का निषेध प्रचलित है। इसके पीछे कथा बताई जाती है कि वारंगल के शासक अन्‍नमराज से देवी ने कहा कि मैं तुम्‍हारे पीछे-पीछे आऊंगी, लेकिन पीछे मुड़ कर देखा तो वहीं रुक जाऊंगी। राजा आगे-आगे, उनके पीछे देवी के पैरी के घुंघरू की आवाज दन्‍तेवाड़ा तक आती रही, लेकिन देवी के पैर डंकिनी नदी की रेत में धंसने लगे। घुंघरू की आवाज न सुन कर राजा ने पीछे मुड़ कर देखा और देवी रुक गईं और वहीं स्‍थापित हो कर दंतेश्‍वरी कहलाईं। लेकिन कहानी इस तरह से भी कही जाती है कि देवी का ऐसा ही वरदान राजा को उसके राज्‍य विस्‍तार के लिए मिला था और बस्‍तर से चल कर बालू वाले पैरी नदी में पहुंचते, देवी के पैर धंसने और आहट न मिलने से राजा ने पीछे मुड़ कर देखा, इससे उसका राज्‍य विस्‍तार बाधित हुआ। इसी कारण पैरी नदी को पैरी पहन कर (नाव से भी) पार करने की मनाही प्रचलित हो गई। संभवतः इस मान्‍यता के पीछे पैरी नदी के बालू में पैर फंसने और नदी का अनिश्चित प्रवाह और स्‍वरूप ही कारण है।
राजिम मेले में कतार से रायपुर के अवधिया-धातुशिल्पियों की दुकान होती। वे साल भर कांसे की पैरी बनाते और इस मेले में उनका अधिकतर माल खप जाता, बची-खुची कसर खल्‍लारी मेला में पूरी हो जाती। विवाह पर कन्‍या को पैरी दिया जाना अनिवार्य होने से इस मौके पर अभिभावक लड़की को ले कर दुकान पर आते, दुकानदार पसंद करा कर, नाप कर लड़की को पैरी पहनाता। पसंद आने पर अभिभावक लड़की से कहते कि दुकानदार का पैर छूकर अभिवादन करे, उसने उसे पैरी पहनाया है। लड़की, दुकानदार सहित सभी बड़ों के पैर छूती और दुकानदार उसे आशीष देते हुए पैरी बांध-लपेट कर दे देता, पैरी के लिए मोल-भाव तो होता है लेकिन फिर पैरी पहनाने के एवज में दुकानदार को रकम (मूल्‍य नहीं) भेंट-स्‍वरूप दी जाती और यह पैरी अगली बार सीधे लड़की के विवाह पर खोल कर उसे पहनाया जाता। इसी के साथ रायगढ़ अंचल के मेलों के 'मान-जागर' को याद किया जा सकता है। यहां के प्रसिद्ध धातु-शिल्‍पी झारा-झोरका, अवधियों की तरह ही मोम-उच्छिष्‍ट (lost-wax) तकनीक से धातु शिल्‍प गढ़ते हैं। इस अंचल में लड़कियों को विवाह पर लक्ष्‍मी स्‍वरूप धन-धान्‍य का प्रतीक 'पैली-मान' (पाव-आधा सेर माप की लुटिया) और आलोकमय जीवन का प्रतीक 'दिया-जागर' (दीपदान) देना आवश्‍यक होता, जो झारा बनाते।

राजिम मेला का एक उल्‍लेखनीय, रोचक विस्‍तार जमशेदपुर तक है। यहां बड़ी तादाद में छत्‍तीसगढ़ के लोग सोनारी में रहते हैं। झेरिया साहू समाज द्वारा यहां सुवर्णरेखा और खड़खाई नदी के संगम, दोमुहानी में महाशिवरात्रि पर एक दिन का राजिम मेला-महोत्‍सव आयोजित किया जाता है। पहले यह आयोजन मानगो नदी के किनारे घोड़ा-हाथी मंदिर के पास होता था, लेकिन 'मैरिन ड्राइव' बन जाने के बाद इस आयोजन का स्‍थल बदल गया है।

शिवरीनारायण-खरौद का मेला भी माघ-पूर्णिमा से आरंभ होकर महाशिवरात्रि तक चलता है। मान्यता है कि माघ-पूर्णिमा के दिन पुरी के जगन्नाथ मंदिर का 'पट' बंद रहता है और वे शिवरीनारायण में विराजते हैं। इस मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु और मेलार्थी बड़ी संख्‍या में पहुंचते हैं। भक्त नारियल लेकर 'भुंइया नापते' या 'लोट मारते' मंदिर तक पहुंचते हैं, यह संकल्प अथवा मान्यता के लिए किये जाने वाले उद्यम की प्रथा है। प्रतिवर्ष होने वाले खासकर 'तारे-नारे' जैसी लोक विधाओं का प्रदर्शन अब नहीं दिखता लेकिन उत्सव का आयोजन होने से लोक विधाओं को प्रोत्साहन मिल रहा है। छत्तीसगढ़ में शिवरीनारायण की प्रतिष्ठा तीर्थराज जैसी है। अंचल के लोग सामान्य धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर अस्थि विसर्जन तक का कार्य यहां सम्पन्न होते हैं। इस अवसर पर मंदिर के प्रांगण में अभी भी सिर्फ ग्यारह रुपए में सत्यनारायण भगवान की कथा कराई जा सकती है।

यह मेला जाति-पंचायतों के कारण भी महत्वपूर्ण है, जहां रामनामी, निषाद, देवार, नायक और अघरिया-पटेल-मरार जाति-समाज की सालाना पंचायत होती है। विभिन्न सम्प्रदाय, अखाड़ों के साधु-सन्यासी और मनोरंजन के लिए मौत का कुंआ, चारोंधाम, झूला, सर्कस, अजूबा-तमाशा, सिनेमा जैसे मेला के सभी घटक यहां देखे जा सकते हैं। पहले गोदना गुदवाने के लिए भी मेले का इंतजार होता था, अब इसकी जगह रंग-छापे वाली मेहंदी ने ले लिया है। गन्ने के रस में पगा लाई का 'उखरा' प्रत्येक मेलार्थी अवश्य खरीदता है। मेले की चहल-पहल शिवरीनारायण के माघ पूर्णिमा से खरौद की शिवरात्रि तक फैल जाती है। ग्रामीण क्षेत्र में पिनखजूर खरीदी के लिए आमतौर पर उपलब्ध न होने और विशिष्टता के कारण, मेलों की खास चीज होती थी।

उखरा की तरह ही मेलों की सर्वप्रिय एक खरीदी बताशे की होती है। उखरा और बताशा एक प्रकार से कथित क्रमशः ऊपर और खाल्हे राज के मेलों की पहचान भी है। इस संदर्भ में ऊपर और खाल्हे राज की पहचान का प्रयास करना आवश्यक प्रतीत होता है। इसके अलावा एक अन्य प्रचलित भौगोलिक नामकरण 'चांतर राज' है, जो निर्विवाद रूप से छत्तीसगढ़ का मध्य मैदानी हिस्सा है, किन्तु 'ऊपर और खाल्हे' राज, उच्च और निम्न का बोध कराते हैं और शायद इसीलिए, उच्चता की चाह होने के कारण इस संबंध में मान्यता एकाधिक है।

ऐतिहासिक दृष्टि से राजधानी होने के कारण रतनपुर, जो लीलागर नदी के दाहिने स्थित है, को ऊपर राज और लीलागर नदी के बायें तट का क्षेत्र खाल्हे राज कहलाया और कभी-कभार दक्षिणी-रायपुर क्षेत्र को भी पुराने लोग बातचीत में खाल्हे राज कहा करते हैं। बाद में राजधानी-संभागीय मुख्‍यालय रायपुर आ जाने के बाद ऊपर राज का विशेषण, इस क्षेत्र ने अपने लिए निर्धारित कर लिया, जिसे अन्य ने भी मान्य कर लिया। एक मत यह भी है कि शिवनाथ का दाहिना-दक्षिणी तट, ऊपर राज और बायां-उत्तरी तट खाल्हे राज, जाना जाता है, किन्तु अधिक संभव और तार्किक जान पड़ता है कि शिवनाथ के बहाव की दिशा में यानि उद्‌गम क्षेत्र ऊपर राज और संगम की ओर खाल्हे राज के रूप में माना गया है।

छत्तीसगढ़ का काशी कहे जाने वाले खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर में दर्शन और लाखा चांउर चढ़ाने की परंपरा है, जिसमें हाथ से 'दरा, पछीना और निमारा' गिन कर साबुत एक लाख चांवल मंदिर में चढ़ाए जाने की प्रथा है। इसी क्रम में लीलागर के नंदियाखंड़ में बसंत पंचमी पर कुटीघाट का प्रसिद्ध मेला भरता है। इस मेले में तीज की तरह बेटियों को आमंत्रित करने का विशेष प्रयोजन होता है कि इस मेले की प्रसिद्धि वैवाहिक रिश्तों के लिए 'परिचय सम्मेलन' जैसा होने के कारण भी है। बताया जाता है कि विक्रमी संवत की इक्कीसवीं शताब्दी आरंभ होने के उपलक्ष्य में रतनपुर में आयोजित श्री विष्णु महायज्ञ के पश्चात्‌ इस क्षेत्र में सांकर और मुलमुला के साथ कुटीघाट में भी विशाल यज्ञ आयोजित हुआ जो मेले का स्वरूप प्राप्त कर प्रतिवर्ष भरता आ रहा है।

'लाखा चांउर' की प्रथा हसदेव नदी के किनारे कलेश्वरनाथ महादेव मंदिर, पीथमपुर में भी है, जहां होली-धूल पंचमी पर मेला भरता है। इस मेले की विशिष्टता नागा साधुओं द्वारा निकाली जाने वाली शिवजी की बारात है। मान्यता है कि यहां महादेवजी के दर्शन से पेट के रोग दूर होते है। इस संबंध में पेट के रोग से पीड़ित एक तैलिक द्वारा स्वप्नादेश के आधार पर शिवलिंग स्थापना की कथा प्रचलित है। वर्तमान मंदिर का निर्माण खरियार के जमींदार द्वारा कराया गया है, जबकि मंदिर का पुजारी परंपरा से 'साहू' जाति का होता है। इस मेले का स्वरूप साल दर साल प्राकृतिक आपदाओं व अन्य दुर्घटनाओं के बावजूद भी लगभग अप्रभावित है। कोरबा अंचल के प्राचीन स्थल ग्राम कनकी के जांता महादेव मंदिर का पुजारी परंपरा से 'यादव' जाति का होता है। इस स्थान पर भी शिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेला भरता है।

चांतर राज में पारम्परिक रूप से मेले की सर्वाधिक महत्वपूर्ण तिथियां माघ पूर्णिमा और महाशिवरात्रि (फाल्गुन बदी 13) हैं और इन्हीं तिथियों पर अधिकतर बड़े मेले भरते हैं। माघ पूर्णिमा पर भरने वाले अन्य बड़े मेलों में सेतगंगा, रतनपुर, बेलपान, लोदाम, बानबरद, झिरना, डोंगरिया (पांडातराई), खड़सरा, सहसपुर, चकनार-नरबदा (गंड़ई), बंगोली और सिरपुर प्रमुख है। इसी प्रकार शिवरात्रि पर भरने वाले प्रमुख मेलों में सेमरसल, अखरार, कोटसागर, लोरमी, नगपुरा (बेलतरा), मल्हार, पाली, परसाही (अकलतरा), देवरघट, तुर्री, दशरंगपुर, सोमनाथ, देव बलौदा और किलकिला पहाड़ (जशपुर) मेला हैं। कुछेक शैव स्थलों पर अन्य तिथियों पर मेला भरता है, जिनमें मोहरा (राजनांदगांव) का मेला कार्तिक पूर्णिमा को, भोरमदेव का मेला चैत्र बदी 13 को तथा लटेश्वरनाथ, किरारी (मस्तूरी) का मेला माघ बदी 13 को भरता है।


रामनवमी से प्रारंभ होने वाले डभरा (चंदरपुर) का मेला दिन की गरमी में ठंडा पड़ा रहता है लेकिन जैसे-जैसे शाम ढलती है, लोगों का आना शुरू होता है और गहराती रात के साथ यह मेला अपने पूरे शबाब पर आ जाता है। संपन्न अघरिया कृषकों के क्षेत्र में भरने वाले इस मेले की खासियत चर्चित थी कि यह मेला अच्छे-खासे 'कॅसीनो' को चुनौती दे सकता था। यहां अनुसूचित जाति के एक भक्त द्वारा निर्मित चतुर्भुज विष्णु का मंदिर भी है। कौड़िया का शिवरात्रि का मेला प्रेतबाधा से मुक्ति और झाड़-फूंक के लिए जाना जाता है। कुछ साल पहले तक पीथमपुर, शिवरीनारायण, मल्हार, चेटुआ आदि कई मेलों की चर्चा देह-व्यापार के लिए भी होती थी। कहा जाता है कि इस प्रयोजन के मुहावरे 'पाल तानना' और 'रावटी जाना' जैसे शब्द, इन मेलों से निकले हैं। रात्रिकालीन मेलों का उत्स अगहन में भरने वाले डुंगुल पहाड़ (झारखंड-जशपुर अंचल) के रामरेखा में दिखता है। इस क्षेत्र का एक अन्य महत्वपूर्ण व्यापारिक आयोजन बागबहार का फरवरी में भरने वाला मेला है।

धमतरी अंचल को मेला और मड़ई का समन्वय क्षेत्र माना जा सकता है। इस क्षेत्र में कंवर की मड़ई, रूद्रेश्वर महादेव का रूद्री मेला और देवपुर का माघ मेला भरता है। एक अन्य प्रसिद्ध मेला चंवर का अंगारमोती देवी का मेला है। इस मेले का स्थल गंगरेल बांध के डूब में आने के बाद अब बांध के पास ही पहले की तरह दीवाली के बाद वाले शुक्रवार को भरता है। मेला और मड़ई दोनों का प्रयोजन धार्मिक होता है, किन्तु मेला स्थिर-स्थायी देव स्थलों में भरता है, जबकि मड़ई में निर्धारित देव स्थान पर आस-पास के देवताओं का प्रतीक- 'डांग' लाया जाता है अर्थात्‌ मड़ई एक प्रकार का देव सम्मेलन भी है। मैदानी छत्तीसगढ़ में बइगा-निखाद और यादव समुदाय की भूमिका मड़ई में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। बइगा, मड़ई लाते और पूजते हैं, जबकि यादव नृत्य सहित बाजार परिक्रमा, जिसे बिहाव या परघाना कहा जाता है, करते है। मेला, आमतौर पर निश्चित तिथि-पर्व पर भरता है किन्तु मड़ई सामान्यतः सप्ताह के निर्धारित दिन पर भरती है। यह साल भर लगने वाले साप्ताहिक बाजार का एक दिवसीय सालाना रूप माना जा सकता है। ऐसा स्थान, जहां साप्ताहिक बाजार नहीं लगता, वहां ग्रामवासी आपसी राय कर मड़ई का दिन निर्धारित करते हैं। मोटे तौर पर मेला और मड़ई में यही फर्क है।

मड़ई का सिलसिला शुरू होने के पहले, दीपावली के पश्चात यादव समुदाय द्वारा मातर का आयोजन किया जाता है, जिसमें मवेशी इकट्‌ठा होने की जगह- 'दइहान' अथवा निर्धारित स्थल पर बाजार भरता है। मेला-मड़ई की तिथि को खड़खड़िया और सिनेमा, सर्कस वाले भी प्रभावित करते थे और कई बार इन आयोजनों में प्रायोजक के रूप में इनकी मुख्‍य भागीदारी होती थी। दूसरी तरफ मेला आयोजक, खासकर सिनेमा (टूरिंग टाकीज) संचालकों को मेले के लिए आमंत्रित किया करते थे और किसी मेले में टूरिंग टाकीज की संख्‍या के आधार पर मेले का आकार और उसकी महत्ता आंकी जाती थी। मेला-मड़ई के संदर्भ में सप्‍ताह के निर्धारित वार पर भरने वाले मवेशी बाजार भी उल्लेखनीय हैं। मैदानी छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि में व्‍यापारी नायक-बंजारों के साथ तालाबों की परम्परा, मवेशी व्यापार और प्राचीन थलमार्ग की जानकारी मिलती है। कई पुस्‍तकें ऐसे ठिकानों पर ही आसानी से मिल पाती हैं और जिनसे लोकरुचि का अनुमान होता है।
बस्तर के जिलों में मड़ई की परम्परा है, जो दिसम्बर-जनवरी माह से आरंभ होती है। अधिकतर मड़ई एक दिन की ही होती है, लेकिन समेटते हुए दूसरे दिन की 'बासी मड़ई' भी लगभग स्वाभाविक अनिवार्यता है। चूंकि मड़ई, तिथि-पर्व से संलग्न सप्ताह दिवसों पर भरती है, इसलिए इनका उल्लेख मोटे तौर पर अंगरेजी माहों अनुसार किया जा सकता है। केशकाल घाटी के ऊपर, जन्माष्टमी और पोला के बीच, भादों बदी के प्रथम शनिवार (सामान्यतः सितम्बर) को भरने वाली भंगाराम देवी की मड़ई को भादों जात्रा भी कहा जाता है। भादों जात्रा के इस विशाल आयोजन में सिलिया, कोण्गूर, औवरी, हडेंगा, कोपरा, विश्रामपुरी, आलौर, कोंगेटा और पीपरा, नौ परगनों के मांझी क्षेत्रों के लगभग 450 ग्रामों के लोग अपने देवताओं को लेकर आते है।
भंगाराम देवी प्रमुख होने के नाते प्रत्येक देवी-देवताओं के कार्यों की समीक्षा करती है और निर्देश या दंड भी देती है। माना जाता है कि इस क्षेत्र में कई ग्रामों की देव शक्तियां आज भी बंदी है। यहां के मंदिर का सिरहा, बंदी देवता के सिरहा पुजारी से भाव आने पर वार्ता कर दंड या मुक्ति तय करता है। परम्परा और आकार की दृष्टि से भंगाराम मड़ई का स्थान विशिष्ट और महत्वपूर्ण है।

मड़ई के नियमित सिलसिले की शुरूआत अगहन पूर्णिमा पर केशरपाल में भरने वाली मड़ई से देखी जा सकती है। इसी दौर में सरवंडी, नरहरपुर, देवी नवागांव और लखनपुरी की मड़ई भरती है। जनवरी माह में कांकेर (पहला रविवार), चारामा और चित्रकोट मेला तथा गोविंदपुर, हल्बा, हर्राडुला, पटेगांव, सेलेगांव (गुरुवार, कभी फरवरी के आरंभ में भी), अन्तागढ़, जैतलूर और भद्रकाली की मड़ई होती है। फरवरी में देवरी, सरोना, नारायणपुर, देवड़ा, दुर्गकोंदल, कोड़ेकुर्से, हाटकर्रा (रविवार), संबलपुर (बुधवार), भानुप्रतापपुर (रविवार), आसुलखार (सोमवार), कोरर (सोमवार) की मड़ई होती है।

संख्‍या की दृष्टि से राज्य के विशाल मेलों में एक, जगदलपुर का दशहरा मेला है। बस्तर की मड़ई माघ-पूर्णिमा को होती है। बनमाली कृष्णदाश जी के बारामासी गीत की पंक्तियां हैं-
''माघ महेना बसतर चो, मंडई दखुक धरा। हुताय ले फिरुन ददा, गांव-गांव ने मंडई करा॥'' बस्तर के बाद घोटिया, मूली, जैतगिरी, गारेंगा और करपावंड की मड़ई भरती है। यही दौर महाशिवरात्रि के अवसर पर महाराज प्रवीरचंद्र भंजदेव के अवतार की ख्‍यातियुक्‍त कंठी वाले बाबा बिहारीदास के चपका की मड़ई का है, जिसकी प्रतिष्ठा पुराने बड़े मेले की है तथा जो अपने घटते-बढ़ते आकार और लोकप्रियता के साथ आज भी अंचल का अत्यधिक महत्वपूर्ण आयोजन है। मार्च में कोंडागांव (होली जलने के पूर्व मंगलवार), केशकाल, फरसगांव, विश्रामपुरी और मद्देड़ का सकलनारायण मेला होता है। दन्तेवाड़ा में दन्तेश्वरी का फागुन मेला नौ दिन चलता है।
अप्रैल में धनोरा, भनपुरी, तीरथगढ़, मावलीपदर, घोटपाल, चिटमटिन देवी रामाराम (सुकमा) मड़ई होती है। इस क्रम का समापन इलमिड़ी में पोचम्मा देवी के मई के आरंभ में भरने वाले मेले से होता है।

मेला-मड़ई के स्वरूप में समय के कदमताल, परिवर्तन अवश्य हुआ है, किन्तु धार्मिक पृष्ठभूमि में समाज की आर्थिक-सामुदायिक आवश्यकता के अनुरूप इन सतरंगी मेलों के रंग की चमक अब भी बनी हुई है और सामाजिक चलन की नब्ज टटोलने का जैसा सुअवसर आज भी मेलों में मिलता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं।

मेला के अलावा तालाब और ग्राम देवता, दो अन्‍य ऐसे विषय हैं, बचपन से ही जिनकी बातें करते-सुनते मेरा मन कभी नहीं भरता। वैसे तो मैंने तालाब तथा ग्राम देवता पर भी कुछ-न-कुछ लिखा है लेकिन यहां प्रस्‍तुत मेला सहित उन विषयों पर लिखा मेरा लेख हमेशा अधूरा, कच्‍चा-सा लगता है।

यह लेख मेरे द्वारा, 'अस्मिता शंखनाद' मासिक पत्रिका के फरवरी-मार्च-अप्रैल 2006 अंक मड़ई-मेला-पर्यटन के लिए अतिथि संपादक श्री राम पटवा और डॉ. मन्नूलाल यदु जी के कहने पर तैयार किया गया। इसके बाद यह विभिन्न स्थानों पर, ज्यादातर मेरी बिना जानकारी के और बेनामी, जिसमें विकीपीडिया भी है, इस्तेमाल हुआ। कुछ कद्रदानों ने इसे अपने नाम से भी छपा लिया, इन सभी योगदान को छत्‍तीसगढ़ की संस्‍कृति के प्रचार के रूप में देखता हूं, अतः किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं, यह जिक्र इसलिए है क्‍योंकि यह एक प्रमुख कारण भी बना, अपनी लिखी नई-पुरानी सामग्री के साथ यह ब्लाग 'सिंहावलोकन' आरंभ करने का।