Wednesday, March 28, 2012

भूल-गलती

स्वदेश-परिचय माला में प्रकाशित ग्यारह पुस्तकों में एक, ''भारत की नदियों की कहानी'', आइएसबीएन : 978-81-7028-410-9 है। हिन्दी के प्रतिष्ठित राजपाल एण्ड सन्ज़ द्वारा प्रकाशित इस पुस्तकमाला के लेखक हैं, प्रसिद्ध साहित्यकार, इतिहास और कला के मर्मज्ञ डॉ. भगवतशरण उपाध्याय। यह भी बताया गया है कि- ''प्रत्येक पृष्ठ पर दो रंग में कलापूर्ण चित्र, सुगम भाषा और प्रामाणिक तथ्य।'' पुस्तक देखते-पढ़ते यह अजीब लगा कि पुस्‍तक में कुछ रेखांकन जरूर हैं, लेकिन चित्र प्रत्येक पृष्ठ पर नहीं।
सुगम भाषा और प्रामाणिक तथ्यों वाली बात के परीक्षण के लिए पुस्तक के अंश उद्धृत हैं-

''नर्मदा
मैं अमरकण्टक की पहाड़ी गाँठ से निकलती हूँ और भारत के इस सुन्दर प्रदेश को ठीक बीच से बाँट देती हूँ। मेरे एक ओर विन्ध्याचल है, दूसरी ओर सतपुड़ा और दोनों के बीच चट्‌टानें तोड़ती तेज़ी से मैं पश्चिमी सागर तक दौड़ती चली जाती हूँ। अनेक बार मैं पहाड़ की चोटी से गिरती भयानक प्रपात बनाती हूँ, अनेक बार पहाड़ी भूमि की गहराइयों में खो जाती हूँ, अनेक बार जामुन के पेड़ों के बीच फैली हुई बहती हूँ। मेरा इतिहास पुराना है, मेरी घाटी में सभ्यताओं ने समाधि ली है।''

पुस्‍तक के उपरोक्‍त अंश में पहाड़ी गाँठ शब्द का प्रयोग सुगम-सहज नहीं लगा। सुन्दर प्रदेश को बांटने वाली बात जमती नहीं, ऐसा लगता है कि इस प्रदेश को बांटने के लिए नदी प्रवाहित हुई है। भयानक शब्द का प्रयोग भी खटकता है (याद करें, वेगड़ जी की नर्मदा पर लिखी पुस्तकें- सौंदर्य की नदी नर्मदा, तीरे-तीरे नर्मदा, और अमृतस्‍य नर्मदा) और ''सभ्यताओं ने समाधि'' जैसा प्रयोग भी अखरता है।

एक और अंश देखें-

''सोन
मैं भी ब्रह्मपुत्र की तरह नद की संज्ञा से ही विभूषित हूँ।... बरसाती दिनों में बड़ा भयंकर स्वरूप होता है मेरा। ... मेरी बालुका-राशि अति शक्तिशालिनी होती है, इसीलिए भवन-निर्माण आदि में सोन की रेत सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। ... प्रसिद्ध तीर्थस्थल अमरकंटक मेरा उद्‌गम है। ... एक छोटे-से चहबच्चे से 'पेंसिल' के आकार में निकलती हूँ मैं।
... मुझे गर्व है कि अमरकंटक के सदृश पुनीत पर्वत से मेरा प्राकट्‌य हुआ। ... ज्ञात ही है कि नर्मदा का उद्‌गम-स्थल भी यही है, अतः नर्मदा मेरी बड़ी बहन है। ... नर्मदा और अमरकंटक का वर्णन विस्तार से इसलिए करना पड़ा क्योंकि जहाँ से मेरी प्यारी सखी निकलती है, वहीं से थोड़ी दूर उत्तर में मेरी एक सहायिका नदी भी निकलती है, जिसे ज्योतिरथ्या का नाम प्राप्त है। ... ज्योतिरथ्या को अपभ्रंश में जोहिला भी कहते हैं। ... ज्योतिरथ्या या जोहिला के जल को ग्रहण करने के पश्चात्‌ ही मैं नदी से नद बनती हूँ। ... एक दूसरी महत्वपूर्ण नदी जो मेरे उदर के आकार को बढ़ाती है, वह है महानदी।''

यहां नद कहते हुए संज्ञा के बजाय लिंग (स्‍त्रीलिंग-पुल्लिंग) की बात उचित होती, वैसे आत्मकथन शैली में लिखे होने पर भी कहीं मेरी रेत के बजाय 'सोन की रेत' लिखा गया है साथ ही सोन और ब्रह्मपुत्र दोनों के लिए लिंग का ध्यान नहीं रखा गया है। भयंकर (विशाल, विकराल का प्रयोग उपयुक्त होता) शब्द के प्रति लेखक की आसक्ति यहां भी बनी हुई है। ... भवन-निर्माण के लिए क्या शक्तिशालिनी बालू होती है? ... पेंसिल के आकार से आशय स्पष्ट नहीं होता। नद-नदी के आकार के लिए प्रचलित 'काया' के बजाय उदर शब्द का प्रयोग अजीब लगता है। महानदी के जिक्र में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह छत्तीसगढ़ वाली प्रसिद्ध महानदी (हीराकुंड बांध वाली) नहीं, बल्कि इससे इतर छोटी महानदी है। गोपद नदी को ही शायद यहां गोमत कह दिया गया है इसी तरह ओंकारेश्‍वर को बार-बार ओंकालेश्‍वर कहा गया है।

सोन के लिए एक बार अमरकंटक 'मेरा उद्गम' और दूसरी बार अमरकंटक से 'मेरा प्राकट्‌य' बताया गया है, इससे लगता है कि लेखक के मन में सोन के उद्‌गम को लेकर संदेह रहा है या वे जान-बूझ कर पाठक को भ्रमित करना चाहते हैं ऐसा तो संभव नहीं कि इन दोनों से अलग उन्हें यह पता ही न रहा हो। इसी तारतम्य में सोन उद्‌गम के लिए मध्यप्रदेश राज्य पर्यटन विकास निगम लिमिटेड द्वारा एक तरफ अमरकंटक से 3 किलोमीटर पर सोनमुड़ा को ''The source of river Sone'' बताया जाता है वहीं अपने अमरकंटक फोल्डर में 'निगम' ने (सोनमुड़ा को प्रूफ की भूल से? सोन मुंग लिख कर) ''उद्‌गम है'' के बजाय ''उद्‌गम माना जाता है'' छापा है।
सोन, नर्मदा और जोहिला के उद्‌गम अंचल में राजकुमार सोन, राजकुमारी नर्मदा की उसके प्रति आसक्ति, दोनों का विवाह तय होना, जोहिला नाइन का छलपूर्वक सोन से संगम और नर्मदा का रूठकर कुंवारी रह जाने की कथा व गीत प्रचलित है- ''माई नरबदा सोन बहादुर जुहिला ल लेइ जाय बिहाय'' और ''मइया कंच कुंवारी रे, सोन बहादुर मुकुट बांध के जुहिला ल लाने बिहाय।'' संबंधित प्रकाशनों में भी आसानी से यह कथा छपी मिल जाती है, फिर जोहिला को सहायिका कहने तक तो ठीक है, लेकिन नर्मदा को सोन की बड़ी बहन कहने की बात एकदम नहीं जमती।

सोन का वास्‍तविक उद्‌गम, छत्‍तीसगढ़ के पेन्‍ड्रा के पास सोन बचरवार में मौके पर स्पष्ट है ही, स्‍तरीय अध्ययनों तथा सर्वे आफ इण्डिया के प्रामाणिक नक्शे में भी इसका तथ्यात्मक विवरण उपलब्ध है। इस तरह ''भारत की नदियों की कहानी'' पुस्‍तक में अमरकंटक को सोन का उद्‌गम बताया जाना भारी भूल है। अपनी पसंदीदा पुस्‍तकों में से एक 'पुरातत्‍व का रोमांस' के लेखक के रूप में, भगवतशरण उपाध्‍याय जी के प्रति मेरे मन में बहुत सम्‍मान है लेकिन उनकी पुस्‍तक 'सवेरा-संघर्ष-गर्जन' वाले (राहुल सांकृत्‍यायन की 'वोल्‍गा से गंगा' की तुलना का) विवाद के कारण उनकी छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा, वह इस प्रकाशन से गंभीर हो जाता है। याद करें, छपाई की श्रमसाध्‍य, समयसाध्‍य और जटिल प्रक्रिया के दौर में अधिकतर अच्‍छे प्रकाशनों में शुद्धि पत्र का पृष्‍ठ होता था। ऐसा भी उदाहरण मैंने देखा है, जिसमें पुस्‍तक की मुद्रित प्रतियों में लेखक स्‍वयं द्वारा कलम से प्रूफ की गलती का सुधार किया गया है।

प्रसंगवश, ब्‍लागिंग का प्रभाव, उसकी ताकत, सार्थकता मात्र ब्‍लाग और पोस्‍ट की संख्‍या के आधार पर या टिप्‍पणियों के आदान-प्रदान से तो संभव नहीं है। कविताओं पर सुंदर, नादान-कामुक वाली 'हॉट एन सॉर' या 'स्‍वीट-सॉर', बेमेल तस्‍वीरें लगाना जैसी प्रवृत्ति भी तेजी से फैलती है। संभव है यह जल्‍दी ही बहुमत बन जाए, तब तो असहमति के बावजूद जन-भावना का सम्‍मान करते हुए जनता-जनार्दन का निर्णय शिरोधार्य करना पड़ सकता है, सो इसकी आलोचना में देर करना ठीक न होगा। ऐसे ब्‍लागर अच्‍छी तरह समझते होंगे कि उनकी रचना कितनी प्रभावी है। यह भी अंदाजा होता है कि वे अपने अपेक्षित पाठक का क्‍या मूल्‍यांकन करते हैं।

इसका खास प्रयोजन यह कि हिन्‍दी ब्‍लागिंग में जिम्‍मेदारी और गंभीरता का सामूहिक भाव, उसे मजबूती देने में सहायक हो सकता है इस दृष्टि से विचार है कि एक जन-मंच (फोरम) हो, जिसमें खास कर प्रतिष्ठित-स्‍तरीय प्रकाशक-लेखकों की ऐसी पुस्‍तकों की चर्चा हो, जिसमें गंभीर तथ्‍यात्‍मक चूक होती है। ऐसी लापरवाही सामान्‍य ज्ञान की पुस्‍तकों में भी मिल जाती है। ऐसा फोरम यदि अच्‍छे संपादन सहित काम करने लगे तो शायद इस प्रवृत्ति पर अंकुश हो, यह लोक-नियंत्रण (पब्लिक सेंसर) जैसा काम होगा। यानि 'भूल-गलती उदासीनता का फायदा लेते, जिरह-बख्‍तर पहन कर न बैठ जाए।' ऐसा फोरम वांछित गति और स्‍तर पा ले तो प्रकाशक और लेखक भी अपना पक्ष स्‍पष्‍ट करने यहां आएंगे। उपभोक्‍ता और बौद्धिक जागरूकता, प्रतियोगी परीक्षाओं के वस्‍तुनिष्‍ठ प्रश्‍नों के उत्‍तर, कानूनी संदर्भ-अड़चन जैसे अन्‍य पक्ष इसके विस्‍तार में शामिल होंगे। अधिक गंभीर गलतियों वाले प्रकाशन पर रोक भी लग सकती है।

यहां ऐसी टिप्‍पणियां अपेक्षित हैं, जिनसे पता लग सके कि क्‍या आपके पास इस तरह के कुछ ठोस उदाहरण हैं? ऐसे फोरम में आपकी कितनी भागीदारी, कैसा योगदान हो सकता है? यह पोस्‍ट वस्‍तुतः ऐसे फोरम के लिए उदाहरण सहित विचार-प्रस्‍ताव है। तकनीक-सक्षम, ब्‍लागिंग पर निगरानी रखने वाले सक्रिय ब्‍लागर चाहें तो इस योजना पर काम कर सकते हैं।

34 comments:

  1. सजग समालोचना!!

    ReplyDelete
  2. आपकी नजर से किसी का बच पाना मुस्किल है। मेरा तो मानना है कि किसी भी स्थान पर कुछ लिखने के पहले वहाँ जाकर स्थानीय सूत्रों से जानकारी जुटानी चाहिए। जिससे सही जानकारी पाठकों तक पहुंचे। घर पर बैठकर देखने से यही होता है। वैसे भी सोन नद के उद्गम के विषय में लोगों को भ्रम हो जाता है। लोगों ने अमरकंटक ही प्रचलित कर रखा है। जबकि सोन नद का उद्गम सोन कुंड (सोन बचरवार) है। इसमें कोई संशय  नहीं है।

    ReplyDelete
  3. राजपाल एण्ड सन्ज़ और डॉ. भगवतशरण उपाध्याय दोनों को गलती स्वीकार करते हुए उस में न केवल सुधार करना चाहिए अपितु पुस्तक के त्रुटिपूर्ण संस्करण के लिए उस के खरीददारों और पाठको से खेद व्यक्त करते हुए क्षमायाचना भी करना चाहिए।

    ReplyDelete
  4. त्रुटि को सुधारना प्रकाशक और लेखक दोनों का दायित्व है !

    ReplyDelete
  5. आपसे सहमत हूँ। राजपाल एंड संस तो बड़े स्थापित प्रकाशक हैं। ऐसे गम्भीर विषयों पर प्रकाशन से पहले भाषा के साथ कंटेंट की भी पड़ताल होनी चाहिये। इस पुस्तक के आगामी संस्करणों के सुधार के उद्देश्य से आपको यह प्रविष्टि एक पत्र के माध्यम से या ईमेल से लेखक-प्रकाशक को भेजनी चाहिये। फ़ोरम में मैं शायद सहायक सिद्ध न हो सकूँ, पर ब्लॉग जगत के विद्वान विशेषज्ञ अवश्य आगे आयेंगे, ऐसी आशा है। शुभकामनायें!

    ReplyDelete
  6. कभी कभी भाषा के प्रवाह में आने वाली परशानी के कारण भी त्रुटियाँ हो जाती हैं किन्तु तथ्यात्मक सन्दर्भ सटीक होना जरूरी है यदि ऐसा हो जाता है तो भूल सुधार की तुरंत आवश्यकता होती है

    ReplyDelete
  7. आपने जिन मुद्दों को उठाया है वह कतई नज़रंदाज़ नहीं किये जा सकते हैं.. लेखक और प्रकाशक दोनों की प्रतिष्ठा स्थापित है, किन्तु आपने जो बातें बताईं हैं उनसे इनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगता है...!
    रही बात एक सार्थक चर्चा/आलोचना/समीक्षा/तथ्यात्मक आकलन की, तो उसके लिए प्रतिभागी ब्लोगर के उस विषय में ज्ञान के स्तर पर निर्भर करता है.. जिस प्रकार आपने इस विषय में भूल एवं भ्रांतियों को लक्ष्य किया है, वैसे कोई अन्य व्यक्ति जिसकी जानकारी/शोध इस विषय में न हो, नहीं कर सकता है..
    ब्लॉग-पोस्ट पर चित्र लगाने के पक्ष में मैं भी नहीं हूँ और शायद बहुत कम ही चित्र लगाए होंगे.. वह भी तब जब बिलकुल आवश्यक हो.. असंबद्ध चित्र का तो मैं स्वयं विरोधी हूँ... लेकिन किसी को टोकना कहाँ तक उचित होगा, यह नहीं कह सकता!! कई स्तरीय/बौद्धिक ब्लोगर्स को देखा हैं मैंने कि वे इस प्रकार के दिखावे से दूर रहते हैं!!
    आपकी बात/सुझाव उचित है!!

    ReplyDelete
  8. सलिल वर्मा जी (चला बिहारी ब्लॉगर बनने) और अनुराग जी (Smart Indian - स्मार्ट इंडियन) की बात से सहमत... संभवतः अनुराग जी की सलाह से पूर्व ही अपने प्रकाशक को उक्त गड़बड़ियों के सम्बन्ध में पत्र लिख दिया होगा...

    ReplyDelete
  9. लगता है धकाधक पोस्ट लिखने की प्रवित्ती की तरह धकाधक किताब लिखने की प्रवित्ती का शिकार थे उपाध्याय जी। लगता कि यह बीमारी ऐतिहासिक काल से रचनाकारो मे चली आ रही है।

    दूसरी बात अधिक महत्वपूर्ण है पाकिस्तान मे आज कल कुछ न्यूस चैनलो मे यह चलन आया है कि अपनी पाठय पुस्तको मे इतिहास की दी गयी त्रूटीपूण जानकारियो पर विशेषज्ञो को बैठा कर चर्चा की जाती है। ब्लाग जगत सशक्त भाध्यम बन सकता है लेकिन यहा गंभीरता का अभाव ही नजर आता है। कारण भी साफ़ है अधिकांश ब्लागरो मे अध्ययन और जानकारी का अभाव ही नजर आता है।

    ReplyDelete
  10. साधारण पाठक को तथ्य की जानकारी नहीं होती है. जिस त्रुटि की ओर आपने ध्यान दिलाया है वह केवल आप जैसे लोग ही रेखांकित कर सकते हैं. ब्लॉग पर एक ऐसा फोरम बनाने का विचार अच्छा है लेकिन इसमें हम जैसे साधारण लोग कुछ खास योगदान नहीं कर सकते बस पढ़ सकते हैं.

    ReplyDelete
  11. यह मेरा सौभाग्य रहा है की पेंड्रा में १९७५ में ट्रेनिग काल में
    इन जगहों पर जाने का सौभाग्य मिला .साथ ही आपके पूर्व प्रकाशित ब्लॉग में भी अमरकंटक सहित नदी का मानवीय करण
    का आनंद तथ्यगत मिला ऐसी स्थिति में एक बड़े प्रकाशक का और
    स्थापित लेखक की जिम्मेदारी लेख और लेख के प्रकाशन में दिखनी ही चाहिए .और मान लो सजोगवश ऐसा हो गया तो भूल सुधार कर लेने में क्या हर्ज है . कम से कम हम अपनी जिम्मेदारी तो समझें .

    ReplyDelete
  12. वैसे चूक दिखाने में मजा भी आता है। फोरम या कोई ऐसी जगह हो तो बढिया होगा।

    ReplyDelete
    Replies
    1. वैसे मैंने यह पोस्‍ट खिन्‍न मन से बनाई, मजे के लिए कतई नहीं.

      Delete
  13. " हिन्‍दी ब्‍लागिंग में जिम्‍मेदारी और गंभीरता का सामूहिक भाव, उसे मजबूती देने में सहायक हो सकता है " sahmat hun

    ReplyDelete
  14. विद्वानों और विद्वत्‍ता का मामला है। इसमें हस्‍तक्षेप कर सकँ, यह पात्रता और क्षमता नहीं है मुझमें।

    ऐसा भी होता है कि स्‍थापित नाम का अपना प्रभाव हो जाता है जिसके चलते, पाण्‍डुलिपि के छिद्रावेषण का साहस नहीं हो पाता है।

    फोरम का आपका सुझाव अच्‍छा है। बन्‍द कमरे में बैठक कर किया जानेवाला कोई काम हो तो मुझे अवश्‍य बताइएगा। सहायक और उपयोगी होकर आत्‍मीय प्रसन्‍नता होगी।

    ReplyDelete
  15. ऐसी गलतियाँ स्वीकार कर बदलना बनता है।

    ReplyDelete
  16. आमतौर पर मैं ज्यादा किताबें नहीं पढ़ता क्योंकि आजकल की किताबों में मौलिकता और शोधपरक तथ्यों का अभाव तथा अन्य किताबों से कापी पेस्ट कर लिखने की अजीब परम्परा दिखने लगी है ! यह किताब भी शायद श्रेय लेने और लेखक के रूप में स्थापित करने का प्रयास होकर उसी परम्परा का निर्वाह करती हो ! आपने जिन त्रुटियों पर ध्यान आकृष्ठ कराया है वे लेखन की प्राथमिक त्रुटियाँ हैं जो किसी भी स्थिति में कम से कम किताबों में नहीं होनी चाहिए !

    ReplyDelete
  17. ऐसा फ़ोरम हो तो अच्छा ही है, यहाँ विद्वानों की कमी नहीं है सो स्वेच्छा से आयेंगे।
    शुभकामनायें।

    ReplyDelete
  18. ऐसे फोरम का विचार अच्‍छा है। अगर वह बनता है तो मैं उसमें शामिल होना चाहूंगा।

    ReplyDelete
  19. इरादे नेक लगते हैं !

    ReplyDelete
  20. पुस्तक प्रेत लेखन का परिणाम तो नहीं है !

    ReplyDelete
    Replies
    1. वैसे तो यह ठेके पर, थोक भाव में और सप्‍लाई प्रेरित कार्य का परिणाम जान पड़ता है, लेकिन यहां घटित के कारण के बजाय निदान पर बात केन्द्रित करने का प्रयास किया है.

      Delete
  21. भाषा-वर्तनीगत अशुद्धियों का निवारण तो किसी अन्य विद्वान से पढ़वाकर कराया जा सकता है. लेकिन तथ्यों की त्रुटियाँ तो स्वयं लेखक पर ही निर्भर है.

    ReplyDelete
  22. तथ्यपरख समीक्षा.

    ReplyDelete
  23. आपकी पोस्ट से फिर एक बार आपके नीर-क्षीर विवेक का पता चला। अच्छी समालोचना।

    ReplyDelete
  24. ये गलतियाँ छोटी-मोटी नहीं हैं -इनमें सीघ्र से शीघ्र सुधार होना चाहिये !

    ReplyDelete
  25. राहुल भाई प्रकाशन की गलतियाँ तो अब आम सी लगने लगी है कुछ स्थानीय समाचार पत्रों में संवाददाताओं द्वारा भेजे गए समाचारों की भाषा सोचने पर विवश कर देती है कि क्या इन्हें भाषा का ज्ञान भी है आपके द्वारा प्रस्तावित फोरम का विचार निसंदेह उत्तम है बहुत ही उम्दा पोस्ट

    ReplyDelete
  26. महत्वपूर्ण विषयों पर अपरिपक्व लेखन से समाज का बहुत नुकसान हुआ है समय के साथ विभिन्न हाथों से गुजर कर ऐसे लेख जनमानस के मन में क्या स्थान बनायेंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है !
    आपकी तीक्ष्ण निगाहों का आभार !
    शुभकामनायें आपको !

    ReplyDelete
  27. सहमत हूँ।
    गलतियाँ होना बहुत बड़ी बात नहीं है, लेनी उसका सुधार नहीं करना, स्पष्टीकरण नहीं देना बहुत बड़ी चूक है खासकर तब जबकि आप एक बड़े वर्ग द्वारा मानक स्वरुप देखे जाते हैं।

    ReplyDelete
  28. bahut accha laga aapka vishleshan padhkar ....bahut acchi prastuti.....

    ReplyDelete
  29. न जाने कितनी इस तरह से भूल गलती और भी अनेक पुस्‍तकों में होगी............सुधार आवष्‍यक है...............आने वाली पीढ़ी के लिऐ............

    ReplyDelete
  30. सर ! आप मन के अउ बहुत झन के पीरा ल श्री विश्वनाथ जी के आघू रखिहौं ;श्री विश्वनाथ जी सत्य अउ विद्वान मन के सम्मान करे म तुरंत जुटे बर तैयार रहिथें ;
    रामसुमेर शास्त्री
    [शिक्षक ]
    कुलाची हंसराज मॉडल स्कूल,delhi-52

    ReplyDelete