Saturday, June 25, 2011

परमाणु

रस-रसायन की भाषा। ... रससिद्ध करने वाले वैद्यराज, कविराज भी कहे जाते हैं। ... रस कभी कटु (क्षार), अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय, षटरस है तो करुण, रौद्र, श्रृंगार, अद्‌भुत, वीर, हास्य, वीभत्स, भयानक और शांत जैसे नवरस भी है, जिनमें कभी 'शांत' को छोड़कर आठ तो 'वात्सल्य' को जोड़कर दस भी गिना जाता है। ... हमारे एक गुरुजी 'एस्थेटिक' को सौंदर्यशास्त्र कहने पर नाराज होकर कहते, रसशास्त्र जैसा सार्थक शब्द है फिर कुछ और क्यों कहें। ... आजकल फिल्मी दुनिया में किसी न किसी की केमिस्ट्री बनती-बिगड़ती ही रहती है।

शास्त्रों में अज्ञानी के न जाने क्या और कितने लक्षण बताए गए होंगे, लेकिन मेरा विश्वास है कि उनमें एक होगा- 'अपनी बात कहने के लिए विषय प्रवेश की दिशा का निश्चय न कर पाना।' ऐसा तभी होता है, जब विषय पर अधिकार न हो और उसका 'हाथ कंगन को आरसी' यहां भी है। किन्तु विश्वास के साथ आगे बढ़ रहा हूं कि आपका साथ रहा तो कुछ निबाह हो ही जाएगा।

मेरी अपनी उक्ति है- ''गुणों का सिर्फ सम्मान होता है जबकि पसंद, कमजोरियां की जाती हैं।'' इस वाक्य के वैज्ञानिक परीक्षण के चक्कर में रसायनशास्त्र दुहराने बैठ गया। हमारी परम्परा में वैशेषिक पद्धति में कणाद ऋषि ने अविनाशिता का सिद्धांत प्रतिपादन करते हुए पदार्थ के सूक्ष्म कणों को परमाणु नाम दिया। वैसे पूरी दुनिया में रसायन की प्रेरणा है, चिर यौवन-अमरत्‍व (स्थिरता-अविनाशिता) और किसी भी पदार्थ को बदल कर स्‍वर्ण बना देना (परिवर्तन-गतिशीलता)। शोध अब भी जारी है, लेकिन इस क्रम में खोज हुई कि परमाणु के नाभिक में उदासीन न्यूट्रान (n) और धनावेशित प्रोटान (p) होते हैं, जबकि ऋणावेशित इलेक्ट्रान (e) नाभिक के बाहर कक्षाओं में सक्रिय होते हैं। कक्षों में इलेक्ट्रान की अधिकतम संभव संख्‍या क्रमशः 2, 8, 18, 32 आदि होती है।

इस रेखाचित्र में देखें। सोडियम (Na) n-12, p-11, e-11 (2,8,1) और क्लोरीन (Cl) n-18, p-17, e-17 (2,8,7) से बना सोडियम क्लोराइड (NaCl), नमक यानि सलाइन-सलोनेपन का संयोजक बंध -
बाहरी कक्षा में इलेक्ट्रान की संख्‍या पूर्ण हो तो तत्व अक्रिय होता है और यहां इलेक्ट्रान की संख्‍या उक्तानुसार पूर्ण न होने पर तत्व क्रियाशील होता है तथा इलेक्ट्रान त्याग कर या ग्रहण कर आवर्त सारिणी के निकटतम अक्रिय गैस जैसी रचना प्राप्त करने की चेष्टा (ॽ) करता है। किसी तत्व का परमाणु, जितने इलेक्ट्रान ग्रहण करता या त्यागता है, वही तत्व की संयोजकता होती है।

देखते-देखते तत्व या पदार्थ, मनुष्य का समानार्थी बनने लगा। पदार्थ के धनावेशित प्रोटान, मानव के पाजिटिव गुण और ऋणावेशित इलेक्ट्रान उसकी कमजोरियां हुईं, बाहरी कक्षा में जिनकी संख्‍या पूर्ण न होने के कारण अन्य के प्रति आकर्षण/पसंदगी और फलस्वरूप संयोजकता संभव होती है। लेकिन उदासीन और धनावेशित केन्‍द्र की स्थिरता के भरोसे ही, उसके चारों ओर ऋणावेश गति और यह संयोग संभव होता है। मानवीय चेष्टा/नियति भी तो अक्रिय गैस की तरह स्थिरता, मोक्ष, परम पद प्राप्त कर लेना है।

यह और भी गड्‌ड-मड्‌ड होने लगा। भ्रम होने लगा (अज्ञान का लक्षण ॽ) कि रसायनशास्त्र चल रहा है या कुछ और। आगे बढ़ने पर जॉन न्यूलैण्ड का अष्टक नियम मिल गया। तत्वों को उनके बढ़ते हुए परमाणु भारों के क्रम में व्यवस्थित करने पर 'सरगम' की तरह आठवां तत्व, पहले तत्व के भौतिक और रासायनिक गुणों से समानता रखता है, इस तरह-
सा- लीथियम, सोडियम, पोटेशियम// रे- बेरीलियम, मैगनीशियम, कैल्शियम// ग- बोरान, एल्यूमीनियम// म- कार्बन, सिलिकान// प- नाइट्रोजन, फास्फोरस// ध- आक्सीजन, सल्फर// नी- फ्लोरीन, क्लोरीन// जैसा सुर सधता दिखने लगा।

मजेदार कि यह नियम हल्के तत्वों पर लागू होता है, भारी पर नहीं। वैसे भी भारी पर नियम, हमेशा कहां लागू हो पाते हैं, 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं'। सो सब अपरा जंजाल ...। जड़-चेतन का भेद विलोप ...। कहां तक पड़े रहें दुनियादारी के झमेले में- राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा। राम नाम रस पीजै मनवा ...

सो, गुणों का सम्मान करें और कमजोरियों से प्रेम करें।
साध्य उपपन्न।

Tuesday, June 21, 2011

पंडुक-पंडुक

पंडुक, पंडुक से पंडुक-अंडा फिर पंडुक-बच्‍चा और फिर पंडुक-पंडुक। पिछली पोस्‍ट पंडुक का वाक्‍य है- ''अंडों में सांस ले रहे पंडुकों की करवट, का हाल परिशिष्ट बनाकर बाद में जोड़ा जा सकता है।'' उस पोस्‍ट पर उत्‍साहवर्धक टिप्‍पणियां भी मिलीं, जिनमें से एक, संजय जी की थी- ''गुडलक टु पेंडुकी परिवार।'' सुब्रह्मनि‍यन जी ने लिखा- ''अण्डों को सेने के बाद वाली स्थितियां अनुकूल रहें''। अभिषेक जी ने कहा- ''नये पंडुक आयें तो फिर तस्वीर पोस्ट कीजियेगा।'' आशा जोगलेकर जी ने भी इसी तरह की बात कही। अब अच्‍छी खबर है तो लगा, परिशिष्‍ट के बजाय पोस्‍ट क्‍यूं नहीं।

18 मई की अलस्‍सुबह जच्‍चा एकदम सजग-सक्रिय दिखी और अंडे के इस बाइसवें दिन सुबह साढ़े छः बजे पहला चूजा निकला। जच्‍चा, खोज-खबर ले कर, आश्‍वस्‍त दाना-चारा के लिए निकल गई। हमने एक कटोरी में उसके चारे का इंतजाम किया। वह बस हमारा मन रखने को ही मनुहार करती लेकिन चारा चुगने फिर निकल जाती और कटोरी के चारे का जश्‍न मनातीं गौरैया। गौरैया की इतनी चहल-पहल से पंडुक अनमनी होने लगती और कभी पंख भी फड़फड़ाती।
चूजे की हलचल बढ़ गई, वह गमले के किनार तक आ जाता, एक बार तो बाहर गिरते-गिरते बचा। जच्‍चे की अनियतता देख कर लगा कि दखल जरूरी है, सो सावधानी से चूजे को अंडों व पूरे घोंसले सहित उसी जगह पर एक ऊंचे किनार वाले चौड़े गमले में रख दिया।
लगभग तीन घंटे बाद जच्‍चा आई, आधे घंटे थोड़ी विचलित रही, लेकिन जल्‍दी ही एक-दो परिक्रमा कर इस नई व्‍यवस्‍था को अपना लिया। पहले से चार घंटे बाद दूसरा चूजा निकला। दोनों चूजे कभी अलग तो कभी लट-पट होते। जच्‍चा, कभी अंडों के साथ चूजों को भी ढक लेती तो कभी दोनों पर अपनी चोंच आजमाती दिखती।
गमले में चींटियां दिखीं और एक बार फिर व्‍यवस्‍था बदलनी पड़ी। चूजा, यूं दुबका बैठा रहता, लेकिन जच्‍चा, जो सुबह-दोपहर-शाम दिन में तीन बार आती, के आते ही जो दृश्‍य बनता, वह कुछ इस तरह होता।
मई की तारीख पूरी होते-होते चूजे के सिर पर रोएं घने होने लगे, बॉडी लैंग्‍वेज पंडुक की होने लगी और 1 जून को यानि 26 अप्रैल से छठां हफ्ता पूरा होने पर और यह चूजा, अपना तीसरा हफ्ता पूरा होते-होते गमले के बार-लांचिंग पैड पर आ बैठा।
लग‍भग आधे दिन यहीं डोलता-खुद को तोलता रहा और फिर उड़ान भर ली। हम सबको कुछ और समय लगेगा, पंडुक के साथ की आदत बदलने में, अभी तो वह मन में घर किया बैठा ही है।

Friday, June 17, 2011

अलेखक का लेखा

आज 17 जून, श्री चंद्रशेखर मोहदीवाले की जन्‍मतिथि है। उनका जन्‍म सन 1928 में तथा निधन 21 जुलाई 1999 को हुआ। आप सागर विश्‍वविद्यालय से वनस्‍पति शास्‍त्र के स्‍नातकोत्‍तर तथा बीएड थे। मध्‍यप्रदेश राज्‍य शासन के शिक्षा विभाग की सेवा में अधिकतर बिलासपुर संभाग में पदस्‍थ रहे और शिक्षण महाविद्यालय, बिलासपुर से सेवानिवृत्‍त हुए। इस सामग्री की प्रति मुझे उनके भतीजे श्री संजय तथा पुत्र श्री चंद्रकांत से यहां प्रकाशित करने हेतु सहमति सहित प्राप्‍त हुई। पोस्‍ट के दो हिस्‍से हैं- पहला पारिवारिक पृष्‍ठभूमि का, छोटे फॉन्‍ट में और आगे सामान्‍य फॉन्‍ट में वह भाग, जिसके लिए यह पोस्‍ट लगाई गई है।

यह वंश नृसिंह पंत से प्रारंभ हुआ है यह जानकारी मिली, इसके पूर्व के लोगों के नाम ज्ञात नही हो सके। राहट गांव व हाड क्षेत्र के निवासी थे। आज भी राहटगांवकर परिवार अमरावती के आसपास रहते है वहां के कृषक है और शासकीय/व्यापारिक/निजी संस्थानों में नौकरी करते हैं। छत्तीसगढ़ में आया हुआ परिवार पूर्व में नौकरी या खेती करते रहे होंगे। लिखित प्रमाण नहीं मिला कि परिवार के पहले व्यक्तियों में से कौन भोसले के सेवा में रहकर अंग्रेजों के बंदोबस्ती कार्यालय के रायपुर/बिलासपुर/रतनपुर/नवागढ़ में आये। किन्तु यह सत्य है कि हमारा परिवार रायपुर में ही आया और उन्हें कृषि भूमि दी गई होगी। नृसिंह पंत के बाद ही यह परिवार तीन परिवारों में बंट गया। अकोली वाले राहटगांवकर यहां से ही अलग हुए हैं। नृसिंह पंत के कितने पुत्रियां थी ज्ञात नहीं है। नरहर पंत से ही यह परिवार आगे बढ़ा वर्तमान में तीसरा परिवार नरहर पंत के बाद अलग हुआ। तीन परिवार अलग अलग रहने लगे। 1. तात्याराव बापूजी, अकोलीवाले का परिवार मोहदी से दो किलोमीटर दूर अकोली ग्राम मे बस गये। 2. कृष्णराव आप्पाजी और गोपाल राव आप्पाजी का परिवार ''टोर'' और ''कहई'' नाम के गावों में रहने लगे और कुछ ही वर्षों में खेती की भूमि बेचकर नौकरियों में लग गये, इसी पीढ़ी से अलग अलग हो गये। एक बात विशेष ध्यान में आई कि जो परिवार पास पास रहे चाहे कितनी दूरी रिश्तों की हो घनिष्ट हो जाते हैं। अकोली वाले राहटगांवकर का मोहदी आवागमन अधिक था वे निकट हो गये जबकि वे कृष्णराव के अधिक निकट थे और हमसे और अधिक निकट संबंधी हैं किन्तु आज तक वे हमसे निकट संबंध नहीं रख सके।

नरहर पंत के पुत्र आपाजी जिनका विवाह संबंध धमतरी निवासी हिशीकर से हुआ था। भोसले शासन के अंतिम वर्षों में अंग्रजों ने 1860 सन के करीब भोसले कार्यालय नागपुर के कुछ जानकार लोगों को छत्तीसगढ़ भेजा और व्यवस्था बन्दोबस्त और दफ्तर के कार्य में रायपुर भेजा। इसी दफ्तर के साथ आपाजी रायपुर आये और वैवाहिक संबंध कर रायपुर में रहने लगे। जानकारी मिलती है कि अप्पाजी परिवार सहित रायपुर के पुरानी बस्ती में रहते थे। उनकी मृत्यु किस सन में हुई ज्ञात नहीं है। उनकी विधवा पत्नी को उमरिया नाम का गांव हक मालगुजारी सहित 20-25 एकड़ जमीन दी गई थी। पटवारी तहसीलदार के दफ्तर से जानकारी मिल सकती है कि किस सन में यह गांव (आज की मोहदी) दी गई। अनुमान है कि आपाजी के मृत्यु के तत्काल बाद यह कृषि भूमि मिली है। तथा कुछ ही काल खेती करने के उपरान्त उनकी मृत्यु हो गयी होगी। उनके कुटुंब का विस्तार अगले पृष्ठ में दिया गया है। उनकी दो पुत्रियां और पांच पुत्र थे। उनके पुत्रों में से दो बड़े पुत्र अमृतराव और गणेश की विवाहोपरान्त मृत्यु हो गई इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है। वे दोनों निपुत्रिक थे। कुछ जानकार बताते हैं कि दो तीन विधवायें थीं जो घर के कामों में हाथ बटाती थीं और कभी मोहदी में और कभी अन्यत्र समय बिताती थीं। वे दोनों निसंतान थे।

आपाजी के पुत्रों में लक्ष्मण राव बड़े थे। दूसरे यह कि वे बहुत कम पढ़े लिखे थे। दूसरे और तीसरे पुत्र यथा यादवराव और नारायण राव पढ़े लिखे थे- अंग्रेजी की जानकारी थी। शिक्षण रायपुर में ही हुआ होगा। केवल इतना ही सुना है कि आपाजी की विधवा पत्नी यादवराव और नारायण राव को लेकर रायपुर के तहसील दफ्तर गयी थी और दोनों को बिना विशेष अनुनय विनय के नौकरियां मिल गई यादव राव सिमगा में कानूनगो और नारायण राव धमतरी / महासमुंद में शाहनवीस के पद पर कार्य करने लग गये दोनों को करीब रू. 12/- पेंशन मिलती थी यादवराव की मृत्यु 87 वर्ष की आयु में और नारायण राव की मृत्यु बीस नवम्बर उन्नीस सौ एकतीस में हुई।

यादवराव का समय मोहदी में भजन पूजन में बिताते थे। अपने निवास के लिए उन्होंने ''करिया बंगला'' बनाया जहां 2-3 कमरे और परछी थी कुल 65 फुट लम्बा और 12 फुट चौड़ा हाल जिसके उत्तर में लम्बी 9 फुट चौड़ी परछी थी पीछे दक्षिण में बागवानी हेतु करीब 34 डिसिमिल जगह थी। इस हाल में पूर्व की ओर एक खिड़की थी जहां से उनके लिए पीने का पानी रखा जाता था। भजन पूजन में रत रहते और पढ़ा करते थे। उस समय की भजनों की कापियां और झांज ढोल मैंने देखा है। ग्रंथों में महाभारत, सुखसागर, विश्राम सागर, रामायण, पांडव प्रताप, रामविजय, हरिविजय मुझे मेरी मां ने दिखाया था। इन ग्रंथों की पूजा दशहरे के देवी के नवरात्र के नवमी को होती थी। इसी समय मुझे ये ग्रंथ दिखाये गये थे। यादवराव ने अपने सेवाकाल की सम्पूर्ण कमाई अपने बड़े भाई लक्ष्मण राव (बड़े महराज) को सौंप दी थी। यादवराव दादाजी के नाम से और नारायण राव नानाजी के नाम से जाने जाते थे। परिवार के अन्य सदस्य नारायण राव को काका जी कहते थे। यादवराव की मृत्यु 87 वर्ष की आयु में हुई।

लक्ष्मण राव परिवार के केन्द्रीय सदस्य थे। उनके दोनों छोटे भाई वेतन का अधिकांश भाग उन्हे सौंप देते थे और बदले में सम्पूर्ण राशन, अचार और खेती में उत्पन्न अन्य वस्तुएं भेजते थे। सुना है कि प्रत्येक भाई के पास एक-एक सुन्दर दुधारू गाय थी। गाय का दूध देना बंद होते ही गाय मोहदी भेज दी जाती थी और दूसरी गायें भाइयों के पास चली जाती थी। परिवार में होने वाले सभी वैवाहिक ओर अन्य मांगलिक कार्य मोहदी में ही होते थे। पुरोहित खाना पकाने वाले और पानी भरने वाले रायपुर से खबर मिलते ही आते थे उनके लिए रायपुर बैलगाड़ी जाती थी। आगंतुकों को पत्र द्वारा सूचना जाती थी और मांढर धरसीवां में बैलगाड़ियां तैनात रहती थी। बरसात में आवागमन कठिन था। मोहदी के पास एक घास भूमि थी जिसमें पानी भरता था और कीचड़ हो जाता था। उस भूमि का नाम कोल्हीया धरसा है। (कोल्हीया धरसा से लगा एक डबरा था आज छोटे तालाब का रूप ले चुका है राहत कार्य इत्यादि से) बरसात के लिए बैल तगड़े रखे गये थे। मैंने देखा है कि गाड़ियों की संख्‍या करीब 6 थी और बैल जोड़ियां 7-8 थी प्रत्येक जोड़ी को नाम दिया गया था। एक प्रणाली जो मैं जानता हूं बहुत अच्छी थी वह ऐसे कि रावत, नाई, धोबी, बिगरिहा को 1 या 1½ एकड जमीन दी गई थी जिसकी फसल का हक उन कर्मचारियों को दिया गया था। खेतिहर मजदूर बसाये गये थे उन्हें बसुन्दरा कहते थे वे आवश्यकता पड़ने पर पहले मालगुजार की खेती पर जाते थे बाद में अन्य कृषकों के यहां यह एक कृषकों के साथ समझौता था। (बनिहार)

लक्ष्मण राव साहूकारी भी करते थे जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने 350 एकड़ तक कृषि भूमि बना ली थी। पूरे कृषि कार्य हेतु 22 नौकर थे। भूमि और नौकर (कमिया) बराबर दो भागों में बंटा था यह मात्र स्पर्धा की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए था। करीब 13-14 एकड़ (एक नांगर की खेती) के लिए एक नौकर था नौकरों को संपूर्ण उपज का 1/4 भाग मिलता था। हिसाब कुछ जटिल था फिर मजदूरी उतने ही खंडी धान की मिलती थी जितनी कि आज करीब 28 से 32 खंडी तक। मुखिया नौकर को (अघुवा) कुछ अधिक मिलता था। चना, तिवरा, राहर, गेंहू मूंगफली इत्यादि के बदले 1/4 कीमत के रूपये मिलते थे जो 15 से 25 तक थे कभी कभी 60-70 रूपय तक मिले थे। कोदो और धान की उपज बहुत होती थी। कोदो श्रावण-भाद्रपद माह में उबाल कर जानवरों को खिलाया जाता था। पैरा, हरी घास, दाना सभी जानवरों को दिया जाता था। मेरे यादगार एवं देखने के अनुसार सभी जानवर तगड़े थे। दूध-दही इतना होता था कि इस हेतु पकाने के लिए एक कमरा ही अलग था। जजकी भी साल में 2-3 बार होती होगी क्योंकि लडकियां और बहुओं की संख्‍या अधिक थी इस हेतु एक अलग कमरा था। जिसे छवारी कुरिया कहते थे। धान के चांवल बनाने का काम सतत होते रहता था। इस हेतु एक कमरा था। सभी दामादों के लिए कमरे अलग अलग थे। मांगलिक कार्यों के भोजन पकाने हेतु कमरा था। लकडियां-कंडों हेतु भी पर्याप्त कमरे थे। कंडे बनाने हेतु घिरा हुआ एक मैदान है जहां एक पाखाना भी था। घर में दो बड़े बड़े संडास विशेष बनावट के थे। जानवरों के लिए गोठे बड़े बड़े थे। करिया बंगले की पडछी में 5-6 खंड थे जहां पहले 2-4 घोड़े और बाद मे बैल जोड़ियां रखी जाती थी। सभी प्रकार का कचरा फेंकने के लिए एक बहुत बड़ा गड्‌ढा है जो आज भी पूर्व एवं दक्षिण की ओर है।

इस तरह शासन-प्रशासन व्यवस्था व्यवहार की दृष्टि से लक्ष्मण राव (भाउजी) कुशल थे उन्हीं का अनुकरण होता रहा 1947 के बाद कुछ व्यवस्थाएं बदल गई जो आज दिखाई देती है। गांव देवता, ग्रामीण त्यौहारों का चलन और सामाजिक व्यवस्थाएं उन्हीं की देन है। सामूहिक बैठकों की व्यवस्था (गुड़ी) छायादार चबूतरे उन्हीं की प्रेरणा से बने।

लक्ष्मण राव का जीवन सादगीपूर्ण था वे दो गमछों में अपना निर्वाह करते थे। शर्ट कुरता, कोट टोपी केवल रायपुर या अन्यत्र आने के समय करते थे। लक्ष्मण राव के मां की मृत्यु 1870 में हुई उस समय वे 20 वर्ष के थे।

मोहदी के वयोवृद्धों में एक लक्ष्मण राउत (पहटिया) थे वे सतत हमारे यहां नौकरी पर रहे। उन्हें कनवा भी कहते। वे बताते है कि बैल का सींग आंख को लगा था किन्तु आखें जब थी तब भी उन्हें ''कनवा'' यह संबोधन था इसका राज मेरी मां ने बताया। लक्ष्मण राव बडे देवर थे उनकी पत्नी बड़ी जीजी गिरिजा बाई पहटिया को ''कनवा'' इसलिए कहती थी कि उनके पति और पहटिया एक ही नाम के थे। यह राउत वृद्धावस्था में हनुमान का पुजारी हो गया और राम राम नाम की रट लगाते बस्ती भर घूमता था। उसके दांत टूटे नहीं थे किन्तु घिस गये थे। गुड़ खाकर सर्दी खांसी ठीक कर लेते थे और अलसी का तेल पीकर पेट की बिमारी ठीक करते थे। मृत्यु के समय उनकी उम्र करीब 90-95 की रही होगी। (1952-53)

मोहदी में एक बार सूखा पड़ा फसल नहीं हुई ग्रामीणों और लक्ष्मण राव-नारायणराव के प्रयास से नहर बनाई गयी जो आज भी ठेलका बांधा से जुड़ी है। एक तालाब भी खुदवाया गया जो नौकाकार है उसे नैय्या और महुआ के वृक्षों से घिरे स्थल पर दूसरा तालाब ''महुआ'' तालाब बनाया गया।

मोहदी में एक कृषि क्षेत्र है जिसे डीह-गरौसा कहते हैं। डीह का अर्थ है बस्ती जो ढह गई हो। गरौसा का अर्थ है गांव का रसा हुआ पानी प्राप्त करने वाले खेत। इस संबंध में एक वाकयात कथा के रूप में बताई गई- जहां डीह है वहां एक तालाब है- उमरिया, यह और पूर्व में दूसरा ये छोटे छोटे दो तालाब हैं यही कृषि भूमि हमारे आजोबा/आजी को दी गयी थी। यहां ग्रीष्म काल में जल संकट था। ग्राम गोढ़ी से पानी लाया जाता था। पास ही एक नाला है वहां भी पानी था। उमरिया डीह से गोढ़ी, नगरगांव, अकोली जाने के लिए दूर के रास्ते थे, बीच में (जहां आज मोहदी है) जंगल था- बांस, महुआ, सागौन, साजा, सेन्हा, बेर, नीम, इमली, पीपल, गस्ती, बरगद इत्यादि का घना जंगल। एक बार रात को अकोली में गाड़ियों का पड़ाव पड़ा। भैंसा रात का प्यास बुझाने कहीं निकल गये। सबेरे जब वे पड़ाव में लौटे तो उनके सींगों और शरीर पर चोई (काई) लगी थी। उमरियाडीह पहुंचने पर गांव में यह समाचार तेजी से फैला कि अकोली और गोढ़ी के बीच जो जंगल है वहां तालाब होने का अनुमान और तर्क लगाया गया। तर्क की शोध हेतु लोग समूहों में जंगल में घुसे और वहां देखा तो बहुत बड़ा जलाशय है। लोग नाच उठे। ये तरिया मोहदी इस तरह वर्तमान मोहदी ग्राम में वसाहत प्रारंभ हुई इस मोहनीय स्थल में वसाहत करने का श्रेय लक्ष्मण राव को जाता है। शासकीय बन्दोबस्ती के आने के बाद नाप हुए होंगे और हैसियत के अनुसार लोगों को जमीन कृषि हेतु और मकान बनाने दी गयी होगी। जंगल की कटाई प्रारंभ हो गयी और लकड़ियों का उपयोग मकानों में होने लगा। बढ़ई, राजगीर और चूना बनाने की तकनीक ज्ञात की गई होगी हमारे दो बड़े मकान दो मंजिला इसके साक्षी हैं। अन्यत्र से भी कृषक परिवार जो सम्पन्न थे वसाहत के लिए आये। इनमें से दो परिवार छोटे गौंटिया और बड़े गौटिया (केरे गौटिया) के वंशज आज भी है। लछमन रावत एवं अन्य वृद्ध बताते है कि गौटिया परिवार में भैसा गाड़ी भरकर नगदी रुपया पैसा लाया गया था। अब उनके वंशज सम्पन्न नहीं रह गये।

उस समय मोहदी की जनसंख्‍या करीब 200-250 होगी। धीरे धीरे यह गांव कृषि में उन्नति करते गया और जनसंख्‍या आज 1990 में करीब 1900 हो गयी कुल मतदाता 837 हैं।

हमारे परिवार को सोलह आने का मालगुजारी हक था। सभी घास जमीन तथा आबादी जमीन मालगुजार की थी। ग्राम का क्षेत्र कृषि भूमि, आबादी, घास जमीन सहित कुल 1367 एकड़ है। आज यहां बालक/बालिका पाठशाला है और एक माध्यमिक शाला है। हाई स्कूल की बात लोगों के ध्यान में है।

पोस्‍ट रामकोठी के लिए जानकारी एकत्र करते हुए यह नहीं प्राप्‍त हो सका और जब मिला तो पढ़कर अपनी पोस्‍ट फीकी लगी। यह तब मिल जाता तो 'रामकोठी' शायद लिख ही न पाता। मेरी दृष्टि में श्री चंद्रशेखर मोहदीवाले के निजी-पारिवारिक प्रयोजन हेतु लिखी यह सामग्री इतिहास, साहित्‍य, संस्‍कृति, समाज विज्ञान, ग्राम संरचना और पद्धतियों पर अलेखक का, जो इन विषयों का विशेषज्ञ भी नहीं, ऐसा लेखा है, जिसकी सहजता, प्रवाह, समन्‍वय और वस्‍तुगत रह कर आत्‍मीयता, इन क्षेत्रों के विद्वानों को भी चकित कर सकती है। नतमस्‍तक प्रस्‍तुत कर रहा हूं।

Wednesday, June 8, 2011

गांव दुलारू

''मकोइया की कंटीली झाड़ियां, पपरेल, कउहा, बमरी और मुख्‍यतः पलाश के पेड़ों का जंगल- परसा भदेर। गांव के इस दक्खिनी छोर पर 1945 में आखिरी बार काला हिरण देखा गया। काले हिरण की तो नस्ल दुर्लभ हो गई, परसा भदेर में पलाश के कुछ पेड़ बाकी रहे। 1952 में मालगुजारी उन्मूलन हुआ और जंगलात, सरकार के हो गए। इसी साल, इन पलाश वृक्षों ने आखिरी वसंत देखा।'' गोपा लमना कहानी सुना रहा है, इन अनगढ़ बातों को एक सूत्र में पिरोना चाहता हूं, पर कहां तक। सेटलमेंट की कहानी, चीझम साहब, गढ़ीदार भुवनेश्वर मिश्र की देवी-भक्ति और उनकी घोड़ी बिजली, गांव के उत्तर-पश्चिम का महल- हाथीबंधान। बहुत सी बातें। अपने पुरखों से सुनी-सुनाई। अपनी आंखों देखी। ''आंखों की देखी कहता हूं बाबू, मिसिर बैद के घर के पीछे पुराना सिद्ध मंदिर था, बड़ा भारी, सतजुगी। महल से कोटगढ़ तक कोस-भर लंबी सुरंग थी। अब कौन मानेगा ये बातें। सुनता ही कौन है। जब पहली दफा रेलगाड़ी आई थी, वह भी याद है। बिजली तो अब-अब लगी है।'' अतीत की बातें। एकदम सत्य। मेरे गांव का सच्चा-निश्छल बचपन, दाऊजी के दुलारू जैसा।

दाऊजी के किस्सों से सभी जी चुराते हैं, लेकिन वे सुनाते है- कई बार सुना चुके हैं, लक्खी के घोड़ाधार और गांव के मालिक देवता, ठाकुरदेव का किस्सा। पूरवी सिवाना के तालाब किनारे का डीह, ठाकुरदेव यहीं विराजते हैं, अपने बाहुक देवों जराही-बराही के साथ। और गांव के दूसरे छोर पर अंधियारी पाठ। ''जब भी गांव पर आफत-बिपत आती, यही देवता गांव के बैगा-गुनिया और मुखिया लोगों को सचेत करने निकलते थे और गांव की रखवारी तो किया ही करते थे। सात हाथ का झक्क सफेद घोड़ा, उस पर सफेद ही धोती-कुरता और पागा बांधे देवता। कोई उन्हें आज तक आमने-सामने नहीं देख पाया और देखा तो बचा नहीं।'' दाऊजी को कई रात उनके घोड़े की टाप सुनाई देती है। जाते हुए पीछे से या दरवाजे की झिरी से कइयों ने उन्हें देखा है। दाऊजी ने ही दुलरुवा का किस्सा भी सुनाया था। दाऊजी बताते हैं कि घोड़ाधार पहरुवा हैं और उनके आगे-पीछे ही दिख जाता है यह दुलारू। दुलारू को लेकर हमेशा मेरी जिज्ञासा बनी रहती है। सुना है, गांव के लोगों का ही लाड़-दुलार पाकर बड़ा हुआ। जवान होता लड़का दिखाई पड़ता है, सुंदर और बलिष्ठ। किसी से बोलता-बतियाता नहीं। गांव के सिवाने पर, स्टेशन या सड़कों पर इधर-उधर कहीं भी, कभी भी घूमता दिखाई पड़ जाता है। पता नहीं कब आ जाए, किधर निकल जाए। संभवतः मानसिक रूप से अविकसित। अब किसी का विशेष ध्यान इसकी ओर नहीं रहता। न ही दुलारू किसी से विशेष लगाव दिखाता। अक्सर हंसता रहता है पर उसकी हंसी में, भोलापन है या उपहास या व्यंग्य-भाव, मैं आज तक निर्णय नहीं कर पाया।

किस्सों से अनुमान होता है कि यह मुख्‍यतः बंजारा-नायकों की बस्ती थी, छोटा-सा विरल गांव। गोपा नायक के नाम पर गोपी टांड था और उसी का खुदवाया गोपिया तालाब, रामा का रामसागर और लाखा का लक्खी, इसी तरह सात टांड थे। लाखा बंजारा और नायक सौदागर द्वारा अपने कुत्ते को गिरवी रखने की कथाएं पूरे क्षेत्र में दूर-दूर तक प्रचलित हैं और ये देवार गीतों के भी विषय-वस्तु बने, लेकिन यह अधिक पुरानी बात नहीं है। यही कोई दो-ढाई सौ साल हुए होंगे। बंजारापन तो नायकों की जातिगत प्रवृत्ति है। मारवाड़ के ये बंजारे-नायक बैलों पर नमक और तम्बाकू का व्यापार करते यहां से गुजरे तो यह स्थान मध्य में होने के कारण और उपजाऊ जान पड़ने से उन्हें भा गया और उन्होंने इसे अपना स्थायी निवास बना लिया, हालांकि उनके बंजारेपन और व्यापार की प्रवृत्ति में विशेष अंतर नहीं आया फिर भी वे धीरे-धीरे कृषि की ओर उन्मुख होते गए। नायकों ने इसे सुगठित बस्ती का रूप अवश्य दिया पर आबादी-बसावट में शायद मूलतः निषाद-द्रविड़ जन ही रहे होंगे।

इस गांव के बसने में जिस आरंभिक क्रम का अनुमान होता है, उसमें भारत उपमहाद्वीप के आग्नेय कोण में स्थित मलय द्वीप समूह के कहे जाने वाले निषाद अर्थात्‌ आस्ट्रिक या कोल-मुण्डा ही सर्वप्रथम आए होंगे। केंवट, जिन्हें छत्तीसगढ़ी में निखाद कहा जाता है और बैगा नामक जाति, इसी नस्ल के प्रतिनिधि हैं। अधिकतर यही पूरे क्षेत्र में ग्राम देवताओं के बैगा-गुनिया, ओझा, देवार होते हैं। कहीं-कहीं गोंड़-कंवर भी बैगा हैं, जो परवर्ती नस्ल, द्रविड़ की जातियां हैं। तात्पर्य कि निषादों की मूल बसावट का द्रविड़ों के आगमन और मेल-जोल से द्रविड़-संस्कार हुआ होगा। इसके बाद पुनः नव्य-आर्य, जो पहले ही भारत के उत्तर-पश्चिमी मुहाने से प्रवेश कर चुके थे, बाद में विन्ध्य पर्वत लांघ कर यहां पहुंचे होंगे और उन्हीं के साथ मिश्रित रक्त के कुछ लोग आए होंगे, जो काफी बाद तक भी यहां आते रहे।

अब की कहानी तो सबको मालूम ही है। बाद का कस्बाई रंग एक-एक कर उभरना हमने ही देखा है। तीसेक दफ्तर, नहर विभाग की अलग कालोनी, एक छोटा सा सरकारी कारखाना, जो हमें बहुत बड़ा लगता है, उसकी कालोनी अलग। चार-पांच कच्चे-पक्के सिनेमाघर, वीडियो हाल। सरकारी कालेज, नयी-नयी नगरपालिका, लगभग दोगुनी हो गई आबादी और नियमित व चौबीस घन्टे शहरीकरण आयात के उपलब्ध यातायात साधन। इस सबके साथ गांव के दूर तिराहे पर पर ढाबे, नयी उम्र के खर्चने वाले लड़कों के आउटिंग का अड्‌डा।

यह दुलारु उन होटलों के आसपास भी दिख जाता है। नयी कालोनियों की ओर जाने में जरूर हिचकिचाता है। उसका बालभावपूर्ण सहमता-दुबकता चेहरा हमेशा याद आता है, जब मैं पिछवाड़े झांककर कारखाने की दैत्याकार चिमनियों और चौंधिया देने वाली रोशनी देखता हूं। साइरन की आवाज से किस बुरी तरह घबरा जाता है, दुलारू। पहले चोंगे पर शादी और छट्‌ठी-बरही के गीत बड़ी पुलक से सुनता था, अब लाउड-स्पीकर पर इन्कलाबी और विकास के नारे सुनकर बिदकता है। पहले रेलगाड़ी की सीटी सुनकर प्रसन्न होता था, गाड़ी के समय स्टेशन पर ही रहता था, पर अब यदि वहां रहा तो मुंह लटकाए रहता है। मैं रोज-ब-रोज बेडौल होता उसका शरीर देखता हूं पर उसकी हरकतों में अब भी बचपना है, पहले की तुलना में असमय बुढ़ापे-सी उदासी भी दिखती है। वह मेरे लिए हमेशा अजूबा रहा है।

एक दुलारू ही क्यों, अंतर तो हर जगह दिखाई देता है। रोज-दिन विकास की मंजिलें तय हो रही हैं। लोग पहले से अधिक चतुराई या कहें बुद्धिमानी सीख-जान चुके हैं। बहुत पहले हमारे एक गुरुजी ने किसी पुराने शिलालेख के हवाले से बताया था- 'जानते हो, तुम्हारे गांव का इतिहास सात सौ साल पुराना है, जब कलचुरि राज-परिवार के अकलदेव ने मंदिर, तालाब व उपवन की रचना कर, इसे बसाया था।' अकलदेव या अकालदेव। नाम की सार्थकता, आज के व्यवसाय-कुशल परिचितों की अक्लमंदी की बातें सुनकर महसूस होती है। आठ-दस साल पहले ही यह अकालदेव का गांव था। सार-दर-साल अकाल। फिर भी दुलारू प्रसन्नचित्त रहता था, अब नहर है, दोहरी फसल होने लगी है, वैसा अकाल तो अब याद भी नहीं आता। सरकारी मंडी है, नयी-नयी राइस मिलें लगती जा रही हैं, लेकिन दुलारू को देखकर चिन्ता होती है, वह भयभीत क्यों है। वह क्यों अकलदेव के बसाए गांव के लोगों जैसा नहीं हो पा रहा है।

याद करता हूं, बैठक और घर-चौबारे की रोजाना आत्मीय चर्चा और सबसे जोहार-पैलगी के दिनों को। जब कोई अजनबी कभी गांव में आता- मेहमान, व्यापारी या स्थानान्तरित अफसर, तो सभी को इतनी उत्सुकता होती जैसे अपने घर के आंगन में किसी अनजान से टकरा गया हो और आज छुट्‌टी के दिनों में अनजानों की इतनी भीड़ होती है कि उनके बीच स्वयं को बाहरी आदमी जैसा महसूस होता है, फिर भी लगता था कि कहीं कोई मजबूत स्नेह-सौहार्द्र सूत्र हम सबको जोड़े हुए है। किसी घटना-दुर्घटना की, चाहे वह व्यक्तिगत ही क्यों न हो, चर्चा ही नहीं, चिंता भी हर कोई करता था, पर अब तो हर छठे-छमासे कोई जवान मौत बिना शिनाख्‍त पड़ी रह जाती है, अखबार में छपी गांव की ही कई खबरें हमारे लिए भी समाचार होती हैं।

मुझे अपने बचपन के साथी पीताम्बर की याद आती है। साथ खेले, पढ़े, बढ़े। एक सक्रिय व्यक्ति रहा वह, भरपूर उत्साही। भयंकर सूखा पड़ने पर, गांव में पीने के पानी की कमी होने पर, ट्राली-टैंकर पर सवार, चिलचिलाती धूप में दिन भर जल-वितरण व्यवस्थित करने में लगा रहता था। किसी घटना पर पुलिस की निष्क्रियता पर, बिना किसी परवाह के नारे बुलंद करता। भूख हड़ताल हो या चक्का जाम या कोई गमी-खुशी, हर जगह शामिल हो जाता। घर का मंझला लड़का, बड़े भाई की डांट सुनता और छोटे से हीन ठहराया जाता। फिर भी न तो उसकी हरकतें बदलीं, न बड़े भाई की इज्जत और छोटे भाई से प्रेम में कोई कमी आई। कुछ बरस हुए, कारखाने में उसे नौकरी मिल गई, छोटे से पद पर, किंतु वेतन चार अंक कब का पार कर चुका है, शादी भी हो गई। खेती इस साल ठीक हो नहीं पाई, 'बतर' में आदमी नहीं मिले, सो किसान बड़े भाई चिन्तित, छोटा भाई फेल हो गया सो अलग, बूढ़ी मां बीमार है और भाभी की जचकी होने वाली है, बड़ी बहन को उसका पति ले जाने को तैयार नहीं और छोटी के हाथ इस साल पीले करने हैं। तंग आ गया है पीताम्बर इन सबसे। ''दिन भर खटूं मैं और खाने वाले घर भर।'' मैंने पूछा, सुनता हूं तुम्हारे यहां कोई मिल में फंसकर मर गया और उसका मुआवजा नहीं दिया जा रहा है। मेरी बात पर वह कान नहीं देता। उसे क्या, कौन सी उसकी तनख्‍वाह कम हो जाएगी। अफसर घूंस लेता है, तो क्या हुआ, उसे तो चार अंकों में उतने रुपये ही मिल रहे हैं। उसने कालोनी में क्वार्टर के लिए आवेदन दिया था, अब वहीं रहने लगा है, बीवी के साथ। कारखाने से लोन लेकर स्कूटर भी खरीद लिया है, उसी पर हाट-बाजार आता-जाता है। मैं उससे मिलने पर अब भी पूछता रहता हूं- भाई की चिन्ता, मां की तबियत, बहन का गौना और वह जवाब देता जाता है- मैनेजर... ओवर टाइम... एरियर्स... एलडब्ल्यूपी....। सब कुछ बदल रहा है, शायद।

कभी यहां की रामलीला पूरे इलाके में प्रसिद्ध थी, सभी वर्ग-सम्प्रदाय के लोग इसे सफल बनाने में शामिल होते और पूरे इलाके के दर्शक दूर-दूर से आते। रामलीला तो अब कहानी बन चुकी है, पर बड़े-बुजुर्ग इसका स्मरण कर उमंग से भर जाते हैं। हाथी-बंधान का नवधा रास जरूर हमने देखा। मठ की रथयात्रा और भजन प्रभात-फेरी, बाजार और स्टेशन के राधाकृष्ण मंदिरों की जन्माष्टमी, कुटी में कई-कई अजूबे साधु-संतों का सिलसिला बना रहता था। जैन मंदिर के गजरथ समारोह की चर्चा तो आने वाली पीढ़ियों में भी होगी। दशहरा के रावण, मेले-तमाशे के बाद, दुर्गा-विसर्जन और ताजिया या गौरा का उत्साह एक जैसा ही होता। होली-दीवाली तो पूरे गांव का त्यौहार होता ही था। अखबारों में साम्‍प्रदायिक दंगों की खबर होती तो गांव के गैर-मुस्लिम मुखिया, मस्जिद के मुतवल्‍ली का झगड़ा निपटा रहे होते।

बचपन में अक्सर हमलोग खेत-बरछा की ओर चले जाते थे। वहां ददरिया सुनाई पड़ जाता था या चरवारों के बांसुरी की विचित्र किंतु मधुर धुन। अगहन लगते न लगते फसल घर आने लगती और मेला-बाजार का मौसम शुरू हो जाता। तमाशबीनों, डंगचगहा, बहुरूपियों के झुण्ड आने लगते, हम दिन भर उन्हीं के पीछे लगे रहते। फगुनहा मांदर और फाग अब जैसा दो-चार दिन और किराये पर नहीं, बल्कि पूरे माह चला करता था। चिकारा वाले भरथरी का इन्तजार तो अब भी रहता है। राखी के दूसरे दिन, भोजली के अवसर पर गुरुजी की ओसारी में बैठ कर भरत पूरे उत्साह से आल्हा का 'भुजरियों की लड़ाई' खंड गाता था। कई साल बाद, इस बार दुलारू के पीछे-पीछे, भोजली के दिन मैं भी पुरेनहा तालाब के पार तक गया। रास्ते में भरत नहीं दिखा। मित्रों से पूछताछ की, उसे क्या हो गया? तबियत खराब है या कहीं बाहर गया है? वे लोग बताते गए- निगोसिएशन... वर्क आर्डर... टाइमकीपर... पीस वर्क...।

आज पीताम्बर के भाई साहब मिले, अपनी व्यथा-कथा लिए। पीताम्बर की चर्चा होने पर मैंने उनसे पूछा- आपने पीताम्बर का नया घर देखा? उन्होंने बताया- 'हां, दशहरा के दिन बड़े-बखरी की जुन्ना हवेली से देखा, तिजउ भी साथ था। मैं तो कभी कारखाना देखने नहीं गया, तिजउ दिखा रहा था उसका क्वार्टर और कारखाने की चिमनी से निकलता धुआं। कह रहा था कि यही धुआं फेफड़ों में भरने लगेगा, धीरे-धीरे खेतों में बैठता जाएगा और सब किसानी चौपट हो जाएगी, सारी जमीन बंजर हो जाएगी।'

मैं घर वापस आया। चिमनी का धुंआ और ट्रकों से उड़ती धूल से पूरा शरीर चिपचिपा हो रहा था। खूब नहाया, पर लगा कि धुंआ धीरे-धीरे जमता ही जा रहा है, अंदर कहीं और जड़ किए दे रहा है, चौपट... बंजर। कारखाने का साइरन दहाड़ कर धीरे-धीरे लंबी गुर्राहट में बदल गया, चाह कर भी दुलारू के भयभीत चेहरे की याद दिमाग से नहीं निकाल पा रहा हूं।

तीसेक साल पहले अपना लिखा यह नोट ढूंढ निकाला, जो बाद में कभी दैनिक भास्कर, बिलासपुर संस्‍करण के अकलतरा परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ था, फिर से पढ़ते हुए लगा कि यह किसी एक गांव की नहीं, आपके अपने या जाने-पहचाने गांव की भी कहानी हो सकती है।