Sunday, March 27, 2011

तीन रंगमंच

ब्रज की सी यदि रास देखना हो प्यारों।
ले नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारो॥
यदि लखना हो सुहृद! आपको राघवलीला।
अकलतरा तो चलो, मत करो मन को ढीला॥
शिवरीनारायण जाइये, लखना हो नाटक सुग्घर।
वहीं कहीं मिल जाएंगे जगन्नाटक के सूत्रधर॥

रामकथा, कृष्णकथा, महाभारत और पौराणिक-ऐतिहासिक कथाओं के साथ मंचीय प्रयोजन हेतु नाट्‌य साहित्य को तो छत्तीसगढ़ ने आत्मसात किया ही रामलीला, रासलीला-रहंस से लेकर पारसी थियेटर तक का चलन रहा, जिसमें आंचलिक भाषाई-लोक और संस्कृत, ब्रज, अवधी, उर्दू के साथ हिन्दी के 'शिष्ट' नागर मंचों की सुदीर्घ और सम्पन्न परम्परा यहां दिखती है। लीला-नाटकों के पेन्ड्रा, रतनपुर, सारंगढ़, किकिरदा, मल्दा, बलौदा,  राजिम, कवर्धा, बेमेतरा, राहौद, कोसा जैसे बहुतेरे केन्द्र थे, लेकिन पंडित शुकलाल पाण्डेय के 'छत्तीसगढ़ गौरव' की उक्त पंक्तियों से छत्तीसगढ़ के तत्कालीन तीन प्रमुख रंगमंचों- नरियरा की कृष्णलीला, अकलतरा की रामलीला और शिवरीनारायण (तीनों स्थान वर्तमान जांजगीर-चांपा जिला में) के नाटक की प्रसिद्धि का सहज अनुमान होता है। इन पंक्तियों का संभावित रचना काल 1938-1942 के मध्‍य है।

शिवरीनारायण में पारंपरिक लीला मंडली हुआ करती थी, लगभग सन 1925 में मंडली के साथ संरक्षक के रूप में मठ के महंत गौतमदास जी, लेखक पं. मालिकराम भोगहा और निर्देशक पं. विश्वेश्वर तिवारी का नाम जुड़ा। इस दौर में भोगहा जी के लिखे नाटकों- रामराज्य वियोग, प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना की जानकारी मिलती है, जिनका मंचन भी हुआ। मठ के अगले महंत लालदासजी हुए और पं. विश्वेश्वर तिवारी के पुत्र पं. कौशल प्रसाद तिवारी के जिम्मे मुख्तियारी आई। आप दोनों की देख-रेख में सन 1933 से 'महानद थियेट्रिकल कम्पनी' के नाम से शिवरीनारायण में नियमित और व्यवस्थित नाट्‌य गतिविधियों का श्रीगणेश हुआ।

शिवरीनारायण में मनोरमा थियेटर, कलकत्ता के संगीतकार मास्टर अब्दुल शकूर और के. दास, परदा मंच-सज्जा सामग्री के लिए खुदीराम की सेवाएं ली जाती थीं। जबकि स्थानीय अनेकराम हलवाई और बनगइहां पटेल को संगीत प्रशिक्षण के लिए विशेष रूप से कलकत्ता भेजा गया था। नाटक और 'पात्र-पात्रियां' सहित उसकी जानकारी छपा कर, परचे पूरे इलाके में बांटे जाते। यहां मंचित होने वाले भक्त ध्रुव, हरिश्चंद्र तारामती, कंस वध, दानवीर कर्ण, शहीद भगत सिंग, नाटकों के नाम आज भी लोगों के जुबान पर हैं। दिल की प्यास, आदर्श नारी, शीशे का महल जैसे प्रसिद्ध और चर्चित नाटक का भी मंचन यहां बारंबार हुआ।

कलकत्ता के जमुनादास मेहरा का कृष्ण सुदामा और सूरदास, पंडित नारायण प्रसाद 'बेताब' देहलवी का महाभारत, नई जिंदगी, भारत रमणी, आगा हश्र कश्‍मीरी का यहूदी की लड़की, आंख का नशा, दगाबाज दोस्त, पंडित राधेश्याम रामायणी कथावाचक का ऊषा अनिरुद्ध, वीर अभिमन्यु और किशनचंद जेबा का जब्तशुदा नाटक भक्त प्रह्लाद आदि भी यहां खेले गए। तब नाटकों की स्क्रिप्ट मिलना सहज नहीं होता। बताया जाता है कि नये नाटक के स्क्रिप्ट के लिए रटंत-पंडितों और शीघ्र-लेखकों की पूरी टीम कलकत्ता जाती और सब मिल कर बार-बार नाटक देखते हुए चुपके से पूरे संवाद उतार लेते। यह भी बताया जाता है कि चर्चित नाटकों के कलकत्ता में हुए प्रदर्शन के महीने भर के अंदर वही नाटक यहां खेलने को तैयार होता। इस तरह कलकत्ते के बाद पूरे देश में कहीं और प्रदर्शित होने में शिवरीनारायण बाजी मार लेता।

अभिनेताओं में केदारनाथ अग्रवाल और विश्वेश्वर चौबे को विशेषकर शिव-पार्वती की भूमिका के लिए, कृपाराम उर्फ माठुल साव को भीम, गुलजारीलाल शर्मा को हिरण्यकश्यप, गयाराम पांडेय को अर्जुन, मातादीन केड़िया को दुर्योधन, लादूराम पुजारी को द्रोण व शंकर, तिजाउ प्रसाद को राणा प्रताप तथा श्यामलाल शर्मा व बनमाली भट्‌ट को हास्य भूमिकाओं के लिए याद किया जाता है। इसके अलावा तब के कुछ प्रमुख कलाकार झाड़ू महराज, कृपाराम साव, लक्ष्मण शर्मा, रामशरण पांडेय, बोटी कुम्हार, रुनु साव, नंदकिशोर चौबे, बसंत तिवारी, भालचंद तिवारी, श्यामलाल पंडित आदि थे। शिवरीनारायण में खेले जाने वाले जयद्रथ वध नाटक में धड़ से सिर का अलग हो जाना, शर-शय्या और पुष्पक विमान जैसे अत्यन्त जीवन्त और चमत्कारी दृश्यों की चर्चा अब भी होती है। यहां पं. शुकलाल पांडेय की कुछ अन्य पंक्तियां उल्लेखनीय हैं-

हैं शिवलाल समान यहीं पर उत्तम गायक।
क्षिति गंधर्व सुरेश तुल्य रहते हैं वादक।
विविध नृत्य में कुशल यहीं हैं माधव नर्तक।
राममनोहर तुल्य यहीं हैं निपुण विदूषक।
हैं गयाराम पांडेय से अभिनेता विश्रुत यहीं।
भारत में तू छत्तीसगढ़! किसी प्रान्त से कम नहीं॥

अमरीका के पोर्टलैंड, ओरेगॉन में लगभग सन 1920 में निर्मित Eilers & Co.  का पियानो शिवरीनारायण के नाटकों की शोभा हुआ करता था, जिसका संगीत न सिर्फ सुनने योग्य होता था, बल्कि लोग इस पियानो को बजता देखने को भी बेताब रहते। इस पियानो को संरक्षित करने की दृष्टि से अत्यंत जर्जर हालत में अकलतरा के सत्येन्द्र कुमार सिंह ने लगभग 30 साल पहले खरीदा और स्थानीय स्तर पर ही उसकी मरम्मत कराई और बजने लायक बनाया। शिवरीनारायण के नाटकों के प्रदर्शन की भव्यता और स्तर का अनुमान नाटक में संगीत के लिए इस्तेमाल होने वाले इस पियानो को देखकर किया जा सकता है।

महानद थियेट्रिकल कम्पनी 1956 तक लगातार सक्रिय रही, लेकिन 1958 में महंतजी के निधन के साथ संस्था ने भी दम तोड़ दिया। अंतिम दौर में 'गणेश जन्म' नाटक की तैयारी जोर-शोर से हो रही थी। तत्कालीन परिस्थितियों के चलते इस नाटक का प्रदर्शन न हो सका और यह कौशल प्रसाद तिवारी जी की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया और तिवारी जी पर आक्षेप करते हुए पोस्टर छपे- 'गणेश-जन्म कब होगाॽ' इस दौर के घटना-क्रम से आहत तिवारी जी ने जीवन भर के लिए न सिर्फ नाटकों से रिश्ता बल्कि अपना पूरा सामाजिक सरोकार ही सीमित कर लिया। अपने अंतिम दिनों में वे जरूर नाटकों और पारसी थियेटर के ऐतिहासिक विश्लेपषण के साथ अपनी तथा-कथा लिख रहे थे, लेकिन क्या और कितना लिख पाये पता नहीं चलता। शिवरीनारायण में भुवनलाल भोगहा की 'नवयुवक नाटक मंडली' एवं विद्याधर साव द्वारा संचालित 'केशरवानी नाटक मंडली' के साथ कौशल प्रसाद तिवारी के 'बाल महानद थियेट्रिकल कम्पनी' की जानकारी मिलती है, जिससे यहां 'महानद थियेट्रिकल कम्पनी' के समानान्तर और उसके बाद भी नाटक मंडलियों और मंच की परम्परा होना पता लगता है।

नरियरा में रासलीला की शुरुआत प्यारेलाल सनाढ्‌य ने लगभग 1925 में की थी, जिसे नियमित, संगठित और व्यवस्थित स्वरूप दिया कौशल सिंह ने। तब से यह प्रतिवर्ष माघ सुदी एकादशी से आरंभ होकर 15 दिन चलती थी। यहां के पं. रामकृष्ण पांडेय के पास 60-70 साल पुराने हस्तलिखित स्क्रिप्ट में वंदना के बाद कृष्णकथा के विभिन्न प्रसंगों को लीला शीर्षक दिया गया है जो मानचरित, बैद्य, गोरे ग्वाल, खंडिता मान, दान, जोगन, चीर हरन, होरी, राधाकृष्ण विवाह, यमलार्जुन, उराहनो, माखन चोरी, गोचारण, पूरनमासी, चन्द्रप्रस्ताव, गोवर्धन गोप, मालीन और प्रथम स्नेह लीला नाम से है।
सन उन्‍नीस सौ तीसादि दशक का नरियरा लीला संबंधित चित्र 
कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत ग्राम नरियरा की प्रतिष्ठा छत्तीसगढ़ के वृन्दावन की रही है। यहां मंचित होने वाली लीला में गांव के गोकुल प्रसाद दुबे, राजाराम, कुंजराम के अलावा आसपास के भी अभिनेता होते, जिनमें जनकराम, सैदा, कपिल महराज, अमोरा, रामवल्लभदास, प्रभुदयाल, मदनलाल, श्यामलाल चतुर्वेदी और गउद वाले दादूसिंह रासधारी, प्रमुख नाम हैं। संगीत पक्ष का दायित्व बिशेषर सिंह पर होता था, जिनकी जन्मजात प्रतिभा में निखार आया, जब वे नासिक जाकर पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर के भतीजे चिन्तामन राव और सेमरौता, उत्तरप्रदेश के उस्ताद मुरौव्वत खान से प्रशिक्षित हुए। लीला के स्थानीय कलाकारों को भी तालीम के लिए वृन्दावन भेजे जाने का जिक्र आता है।
ऊपर गोल घेरे में ठाकुर कौशल सिंह
नीचे गोल घेरे में ठाकुर विशेषर सिंह
नरियरा से जुड़े अन्य संगीतज्ञ होते थे तबला वादक पं. गोकुल प्रसाद दुबे और सारंगी वादक भारत प्रसाद, बाजा मास्टर पचकौड़ प्रसाद, भानसिंह- तबला, सुखसागर सिंह- इसराज, अफरीद के रामेश्वरधर दीवान और साहेबलाल- बांसुरी, भैंसतरा के रघुनंदनदास वैष्णव- चिकारा, जैजैपुर के महेन्द्र प्रताप सिंह पखावजी के साथ बेलारी के बसंतदास, कुथुर के शिवचरन, मेहंदी के काशीराम तथा कोसा के पुर्रूराम। इस प्रकार नरियरा ऐसा केन्द्र बन गया था, जहां पूरे अंचल के संगीत प्रतिभाओं की सहभागिता होती थी। विक्रम संवत्‌ 2000 समाप्त होने के उपलक्ष में बहुस्मृत श्री विष्णु स्मारक महायज्ञ का आयोजन रतनपुर में हुआ। यज्ञ में माघ शुक्ल 8, मंगलवार, 1 फरवरी 1944 को नरियरा कृष्णलीला आरंभ हुई, जो इसके अंतिम यादगार और प्रभावी प्रदर्शन के रूप में याद किया जाता है।

प्रसंगवश थोड़ी चर्चा रतनपुरिहा गम्मत अथवा गुटका यानि कृष्ण लीला की। छत्तीगसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर में लीला की समृद्ध परम्परा डेढ़ सौ साल से भी अधिक पुरानी है। गणेशोत्सव पर आयोजित होने के कारण यह भादों गम्मत के नाम से भी जाना जाता है। इस लीला की ब्रज, अवधी, मराठी, छत्तीसगढ़ी और संस्कृत, पंचमेल रूपरेखा-स्क्रिप्ट बाबू रेवाराम ने तैयार की। कहा गया है- 'कृष्ण चरित यह मह है जोई, भाषित रेवाराम की सोई।' रतनपुरिहा गम्मत की परम्परा के संवाहकों में लक्ष्मीनारायण दाऊ का नाम बहुत सम्मान से याद किया जाता है। लीला के प्रति उनका समर्पण किस स्तर तक था, इसका अनुमान पूरे इलाके में प्रचलित संस्मरणों-किस्सों से होता है। खैर! इसके बावजूद नरियरा के लीला का 'क्रेज' अलग ही था।

लक्ष्मीनारायण दाऊ
हुआ कुछ यूं कि रतनपुर विष्णु महायज्ञ में नरियरा की लीला का प्रदर्शन कराए जाने की बात आई, लेकिन अड़चन थी कि नरियरा कृष्णलीला का मंचन गांव के ही मंदिर के साथ बने मंच पर होता था, इसके अलावा कहीं और नहीं। जिम्मेदारी ली, श्री विष्णु महायज्ञ की स्थायी समिति के पदाधिकारी- कोषाध्यक्ष लक्ष्मीनारायण दाऊ ने। नरियरा वालों को संदेश भेजा गया, जो खर्च लगे दिया जाएगा, लेकिन यज्ञ में लीला होनी ही चाहिए। नरियरा वाले अड़े रहे कि किसी कीमत पर लीला, मंदिर के मंच से इतर कहीं नहीं होगी। बताया जाता है कि तब दाऊजी स्वयं नरियरा गए और एक नारियल, कौशल सिंह के हाथ में देकर कहा कि श्री विष्णु महायज्ञ का न्यौता है, नरियरा रासलीला मंडली को, कृपया स्वीकार करें। बस बात सुलझ गई। गाड़ा (भैंसा गाडि़या) रतनपुर रवाना होने लगे और नरियरा वालों ने यज्ञ समिति को भोजन-छाजन में भी एक पैसा व्यय नहीं करने दिया।

नरियरा मंच की परम्परा ने पचासादि के दशक में करवट ली और वल्लभ सिंह इस दौर के अगुवा हुए। अब लीला के साथ धार्मिक और सामाजिक नाटकों का मंचन होने लगा। पुरानी पीढ़ी के प्रसिद्ध संगीतकार, हारमोनियम वादक और गायक बिशेषर सिंह ने व्यास गद्‌दी संभाली। इसराज पर आपका साथ देते थे सुखसागर सिंह, तबले पर भानसिंह और बाद में उनके पुत्र वीरसिंह। बांसुरी और सितार हजारी सिंह बजाते थे। नाटकों के प्रमुख अभिनेता कृष्ण कुमार सिंह, मेघश्याम सिंह, भरतलाल पांडे, बिसुन साव, रामदास, पं. गीता प्रसाद, धनीराम विश्वकर्मा, दयादास, ननकी बाबू होते थे।
कृष्ण कुमार सिंह एवं भरतलाल पांडे
इस दौर में खेले जाने वाले नाटकों में सती सुलोचना, भक्त प्रह्‌लाद, वीर अभिमन्यु, बिल्व मंगल, वीर अभिमन्यु, हरिश्चन्द्र, ऊषा अनिरुद्ध, मोरध्वज, दानवीर कर्ण, चीरहरण आदि प्रमुख थे। 'राजेन्द्र हम सब तुम पर वारि जाएं, हिल-मिल गाएं खुशियां मनाएं' और 'मिला न हमको कोई कद्रदां जमाने में, ये शीशा टूट गया देखने दिखाने में' जैसे नृत्य-गीतों के बोल सबके जबान पर होते थे। नरियरा में नाटकों का यह दौर लगभग 30 साल पहले तक चलता रहा, लेकिन व्यतिक्रम के साथ ही सही यह परम्परा अगली पीढ़ी तक बनी रही।

अकलतरा में बैरिस्टर साहब ने रामलीला मंडली की स्थापना की, जिसकी शुरुआत 1919 से हुई। लेकिन 1924 के बाद दूसरी बार 1929 से 1933 तक होती रही। अकलतरा के रंगमंच में पारम्परिकता से अधिक व्यापक लोक सम्पर्क तथा अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध अभिव्यक्ति का उद्‌देश्य बताया जाता है। यहां प्रदर्शित होने वाले नाटकों की दस्तावेजी जानकारी लाल साहब डा. इन्द्रजीत सिंह की निजी डायरी से मिली कि सन्‌ 1931 में 23 से 26 अप्रैल यानि वैशाख शुक्ल पंचमी से अष्टमी तक क्रमशः लंकादहन, शक्तीलीला, वध लीला और राजगद्दी नाटकों का मंचन हुआ।

सर्कस कंपनियों के साथ आर्कलैम्प जलाकर घुमाया जाता था, ताकि दूर-दूर के लोग जान सके कि सर्कस आया है और शो शुरू होने वाला है। इसी तरह का, लेकिन कुछ अलग इंतजाम अकलतरा रामलीला के लिए किया जाता था। इसके लिए एक पोरिस (पुरुष प्रमाण) गड्ढा खोदा जाता, जिसमें लीला शुरू होने के घंटे भर पहले, लाल साहब अपनी 500 ब्लैक पाउडर एक्सप्रेस बंदूक दागते थे, जिसकी आवाज एक-डेढ़ कोस तक सुनाई देती और आस-पास के गावों में पता चल जाता कि अकलतरा में रामलीला शुरू होने वाली है। कुछ ऐसे दर्शक रोज होते जो इस दृश्‍य को भी लीला की आस्‍था लिए देखने पहुंच जाते।

अकलतरा रामलीला मंडली के एक अन्य दस्तावेजी स्रोत से पता चला कि चैत माह में नारद मोह, राम जन्म, विश्वामित्रागमन, फुलवारी लीला, धनुष यज्ञ, राम विवाह, कैकई मंथरा संवाद, राम बनवास, भरत मनावनी, सीताहरण, बालिवध, लंका दहन, रामपयान, सेतुबंध, शक्तीलीला, सुलोचना सती, रावण वध, रामराज्याभिषेक लीलाएं होती थीं। यह जानकारी ''बी.एल. प्रेस- 1/2 मछुआबाजार स्ट्रीट, कलकत्ता में छपे 'विज्ञापन' परचे से मिलती है, जिसमें अभिनयकर्ताओं की सूची में चन्दन सिंह, हमीर सिंह, सम्मत सिंह 1 व 2, ननकी सिंह 1 व 2, रामाधीन, शिवाधीन, गुनाराम, मुखीलाल, चुन्नीलाल आदि 40 अभिनेताओं के नाम हैं। इस परचे में ठाकुर दलगंजन सिंह को प्रधान व्यास, ठाकुर स्वरूप सिंह को व्यास और पंडित पचकौड़प्रसाद (बाजा मास्टर के नाम से प्रसिद्ध) को हारमोनियम माष्टर लिखा गया है, जबकि विनीत के स्थान पर ठाकुर छोटेलाल, मैनेजर का नाम है।''

मथुरा, लखनऊ तथा वृंदावन के साथ-साथ अल्फ्रेड और कॉरन्थियन नामक कलकत्ता की दो थियेटर कम्पनियों का प्रभाव इस अंचल के रंगमंच पर विशेष रूप से था और इन्हीं कम्पनियों के सहयोग से परदे, नाटक सामग्री व अन्य व्यवस्थाएं की जाती थी। छत्तीसगढ़ में हिन्दी नाटकों के आरंभिक दौर का यह संक्षिप्त विवरण राष्ट्री य परिदृश्यत के साथ जुड़ कर, यहां रंग परम्परा की मजबूत पृष्ठभूमि का अनुमान कराता है।

• यहां आए परम्परा के संवाहक और संरक्षक प्रतिनिधियों का नाम उल्लेखनीय और स्मरणीय होने के साथ आदरणीय है।
• इस विषय पर शोधपरक व्यापक संभावनाएं हैं, आरंभिक सर्वेक्षण और वार्तालाप में संबंधित तथ्यात्मक जानकारी तथा दस्तावेजी व अन्य सामग्री जैसे वाद्य यंत्र, वेशभूषा, परदे आदि की ढेरों सूचनाएं प्राप्त हुई हैं।

डा. रामेश्वर पांडेय
इस लेख को तैयार करने में सर्वश्री श्यामलाल चतुर्वेदी, कोटमी-बिलासपुर, डा. बी.के.प्रसाद, बिलासपुर, बस्‍तर बैंड वाले अनूप रंजन, कोसा-रायपुर, शिवरीनारायण के कलाकार, कवि व संगीतज्ञ डा. रामेश्वर पांडेय 'अकिंचन' (जो कहते हैं- 'मेरा जन्म 83 साल पहले तब हुआ जब कृष्ण-सुदामा नाटक खेला जा रहा था'), विश्वनाथ यादव, डा. आलोक चंदेल, डा. अश्विनी केशरवानी, पूर्णेन्द तिवारी, बृजेश केशरवानी, अकलतरा के रवीन्द्र सिसौदिया, रविन्द्र सिंह बैस, सौरभ सिंह, नरियरा के पं. रामकृष्ण पांडेय, देवभूषण सिंह, कृष्ण कुमार सिंह, पं. भरतलाल का सहयोग लिया गया।

मूलतः, सन 2008 में विश्व रंगमंच दिवस 27 मार्च के अवसर पर रायपुर से प्रकाशित संकलन 'छत्तीसगढ़ हिन्दी रंगमंच' के लिए मेरे द्वारा तैयार किया गया आलेख।

Friday, March 18, 2011

गौरैया

''1906/07 जब मादा अंडों पर बैठी थी तब एक नर गौरैया सूराख के पास कील पर बैठा था। मैंने अस्तबल में खड़ी गाड़ी के पीछे से उस नर को मारा। ... ... ... अगले सात दिनों में मैंने उस स्थान पर आठ नर गौरैयों को मार गिराया'' अविश्वसनीय लग सकता है कि यह प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सालिम अली की हरकत है और उन्हीं का बयान 'एक गौरैया का गिरना' से लिया गया है। इतना ही नहीं, आगे टिप्पणी है- ''मुझे इस नोट पर गर्व है। ... ... ... आज के व्यवहार संबंधी अध्ययन की दृष्टि से यह बहुत सार्थक सिद्ध हुआ है।''

पुस्तक के 'बस्तरः1949'अध्याय में लिखा है- ''अपने लंबे जीवन में सरगुजा के महाराजा की अपनी प्रजा के प्रति भलाई करने वाली एकमात्र प्रतिबद्धता थी, बाघों की हत्या करना। ... उन्होंने 1170 से अधिक बाघ मारकर, निश्चय ही किसी प्रकार का रिकार्ड बनाया होगा तथा अपने अंतकरण में, यदि उनमें था, उसकी कचोट अनुभव की होगी।'' एक अन्य उद्धरण है- ''सरगुजा राज्य के एक पड़ोसी राज्य, कोरेआ (पूर्वी मध्य प्रदेश) के महाराज के शिकार में अपना नाम अमर कर लिया है। उन्होंने ... भारत के अंतिम तीन चीतों का शिकार कर इस जाति का भारतीय जमीन पर से हमेशा के लिए सफाया कर दिया।''

जिम कार्बेट की हथेली पर चिडि़या
सिद्धार्थ और देवदत्त की प्रसिद्ध कहानी की सीख है- मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है, लेकिन प्राणी संरक्षण के लिए बात थोड़े अंतर से कही जा सकती है कि मारने वाला ही बचाने का काम बेहतर करता है (ज्‍यों डिसेक्‍शन करने वाले हाथ ही शल्‍य चिकित्‍सा कर जान बचाते हैं)। ऊपर आए उद्धरणों के साथ कुमाऊं और रूद्रप्रयाग के आदमखोरों के शिकारी जिम कार्बेट का उदाहरण, उनके एक हाथ में लिए अंडों को बचाते हुए दूसरे हाथ से गोली दागने वाले प्रसंग सहित, स्मरणीय है। यों कहें कि भक्षक ही रक्षक या संहारक ही संरक्षक बन जाए तो इससे बेहतर रक्षा, और क्‍या होगी। बेगूसराय, बिहार के चिडि़मार अली हुसैन को सालिम अली द्वारा अपना सहयोगी पक्षी संरक्षक बना देने की नजीर है ही।

वन-वन्‍यजीव संरक्षण के दो उद्धरण- पहला, मृदुला सिन्‍हा द्वारा लिपिबद्ध राजमाता विजयाराजे सिंधिया की आत्‍मकथा 'राजपथ से लोकपथ पर' से- ''अपने शौक के लिए ही क्‍यों न सही, वन्‍य-संपदाओं के संरक्षण के लिए इन राजा-महाराजाओं ने जितनी सतर्कता बरती थी, वैसी तो आज जंगलों की रक्षा और पर्यावरण के प्रहरी बनने का ढोल पीटने वाले आधुनिक लोग भी नहीं बरतते होंगे। ये राजा-महाराजा इस बात के लिए अत्‍यंत जागरूक रहा करते थे कि शेरों की संख्‍या निर्धारित सीमा के नीचे कभी न जाने पाए। इसीलिए उनके हाथों वन्‍य-जीवों का संगोपन और संवर्ध्‍दन हो सका। और दूसरा, थोरो के 'वाल्‍डन' से- ''शिकार के जानवरों का शायद सबसे बड़ा मित्र ('पशु-परोपकारी समाज' को मिलाकर भी) शिकारी ही होता है।''

सालिम अली से ठीक से परिचित हुआ मेरे पसंदीदा संपादकों, नवनीत के नारायण दत्त और इलस्ट्रेटेड वीकली के प्रीतीश नंदी के 25-30 साल पहले लिखे गए लेखों के माध्यम से। हैमलेट के अंश ''गौरैया के गिरने में विधि का विशेष विधान है'' से प्रभावित शीर्षक वाली पुस्‍तक 'एक गौरैया का गिरना' सालिम अली की आत्मकथा है, लेकिन इसलिए भी खास है कि इसमें लेखक का 'मैं' नाममात्र को है और पुस्तक पक्षी-विज्ञान की पूरी संहिता है। सालिम अली की पुस्तकों और जिस माध्यम से उनसे परिचित हुआ, शायद उसी के चलते जब भी अवसर मिले, मैं पंछी निहारन से चूकता नहीं।

छत्तीसगढ़ की प्राचीन नगरी खरौद के खुशखत, कवि कपिलनाथ मिसिर, बड़े पुजेरी की विशिष्ट और महत्वपूर्ण रचना है 'खुसरा चिरई के बिहाव'। यह काव्य, पक्षी कोश के साथ जैव विविधता जैसे आधुनिक शास्त्रीय विषयों और सूक्ष्म अवलोकन की समर्थ लोक अभिव्यक्ति हैं। रचना में खुसरा चिड़िया के विवाह अवसर पर पूरी जमात को शामिल और पक्षियों को उनके व्यवहार के अनुसार भूमिका निभाते बताया गया है। गौरैया के लिए 'गुड़रिया धान कुटाती है' और एक बार 'गौरेलिया पाठ पढ़ाता है' कहा गया है। वाद्यों में निसान, ढोल, मांदर, तमूरा, करताल, खंजरी, मोहरी, दफड़ा, टिमटिमी, नफेरी के साथ उनकी ध्वनि को शब्दों में उसी तरह बांधा गया है जैसे परती परिकथा में रेणु जी ने ('खुसरा...' का प्रकाशन 1948-49 में बताया जाता है)। इस रचना में विवाह के नेग-चार के साथ अन्न और पेड़ों की नाम-सूची के अलावा शिव-स्तुति श्लोक भी हैं।

धूल-स्‍नानःबाथ सीन
गौरैया, छत्तीसगढ़ी में सामान्‍यतः गुड़ेरिया और बाम्हन चिराई भी कही जाती है। कहा जाता है कि इसके चूजे को कोई व्‍यक्ति स्‍पर्श कर दे तो यह उसे त्‍याग देती है और यह भी कि बाम्हन चिराई को पानी मिला और वह नहाने लगती है। वैसे गौरैया धूल में भी नहाती है, घाघ-भड्‌डरी की कहावत है-
'कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर।
चींटी ले अंडा चढ़ै, तो बरखा भरपूर।'
गौरैया का धूल-स्नान, आसन्न वर्षा का तो जल-स्नान, वर्षा न होने का संकेत माना जाता है।

माना गया है कि गौरैया, रोग-व्‍याधि मुक्‍त स्‍थान पर ही घोंसला बांधती है। वह ब्राह्मणों की तरह छुआ-छूत में सख्‍त भी मानी गयी है। मनुष्य द्वारा छू लिये जाने पर उस गौरैया को छूत मान कर, जात निकाला दे कर चोंच मारा जाता है लेकिन सूपे को किसी डंडी से तिरछा टिका कर या कमरा बंद कर गौरेया पकड़ना, फिर उसे लाल-काला रंग कर या धागा बांधकर, उड़ाने के अभियान से शायद ही कोई बचपन अछूता हो।

एक किस्से में गौरेया मनुष्य जाति के लिए संदेश लेकर आती है कि दिन में एक बार खाना और दो बार नहाना, लेकिन कहने में उससे हुई चूक से मनुष्य एक बार स्नान और दो बार भोजन करने लगा। इसकी सजा स्वरूप उसके पैरों में अदृश्य बेड़ी पड़ गई और उसे चम्पा (एक साथ दोनों पैर पर, फुदककर) चलना पड़ता है। किस्से में यह भी बताया जाता है कि प्रायश्चित स्वरूप उसे खुद बार-बार स्नान करना पड़ता है और भोजन के फिराक में लगे रहना होता है। साल में दो बार त्यौहारों पर बेड़ी छूटती भी है, तब यह ठुमक-ठुमक कर, इतराती चलती है और यह दुर्लभ दृश्य, शुभ माना जाता है, इसके विपरीत गौरैया का प्रजनन देखना निषेध किया जाता है। पक्षी मैथुन, खासकर काग-मैथुन देख लेने पर झूठी मृत्यु सूचना दी जाती है और प्रायश्चित होता है जब कोई स्वजन इस खबर पर रो ले। पक्षियों, विशेषतः सर्वाधिक घरू गौरैया, मैना और कौए की बोली की व्याख्‍या करने वालों के भी रोचक संस्मरण सुनाए जाते हैं। गौरैये को लोक व्यवहार में पुंसत्व का भी प्रतीक माना गया है, संभवतः इसका कारण इस प्रजाति का बारहमासी प्रजनन काल और बारम्‍बारता है।
आंचलिक भावों के कवि कैलाश गौतम के फागुनी दोहे, बड़की भौजी जैसी कविताएं खूब पसंद की जाती हैं, उनकी ऐसी ही एक कविता 'भाभी की चिट्‌ठी' का दोहा है-
सिर दुखता है जी करता चूल्हे की माटी खाने को,
गौरैया घोंसला बनाने लगी ओसारे देवर जी।

एक किस्से में काम के दौरान व्यवधान की सजा बतौर गौरैया के पैरों में लुहार द्वारा बेड़ी डालने की बात कही जाती है। गौरेया के लिए प्रचलित एक अन्य कहानी में चियां-म्यांरी (चूजे-मां) कुदुरमाल (कबीरपंथियों का प्रमुख केन्द्र) मेला के बजाय भांटा बारी (बैगन की बाड़ी) पहुंच कर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं और किस्से के साथ गीत में इसकी मार्मिकता बयान होती है। पंचतंत्र की गौरैया के अंडे मदमत्‍त जंगली हाथी के कारण गिर कर फूट जाते हैं, तब वह विलाप तो करती है, लेकिन कठफोड़वा, मक्‍खी और मेंढक की मदद से बदला भी लेती है।

गौरैयों की बात में, गीतफरोश और सन्‍नाटा वाले भवानी भाई की कविता ''चार कौए उर्फ़ चार हौए'' की कुछ पंक्तियां देखते चलें-
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गए,
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गए।
हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में,
हाथ बांधकर खड़े हो गए सब विनती में।
हुकम हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाएं,
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गाएं।
बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को,
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को।

बताया जाता है कि 1958 में माओ त्से-तुंग, आजकल उच्चारण माओ जिदौंग है, ने गौरेयों से होने वाले फसल का नुकसान कम करने के लिए गौरैयों को ही कम कर देना चाहा, लेकिन इस चक्कर में गौरैयों के भोजन बनने से बच जाने से टिड्‌डे इतने बढ़े कि उनसे हुए नुकसान से अकाल की स्थिति भुगतनी पड़ी।

''गांवों में कहा जाता हैः जिस घर में गौरैया अपना घोंसला नहीं बनाती वह घर निर्वंश हो जाता है। एक तरह से घर के आंगन में गौरैयों का ढीठ होकर चहचहाना, दाने चुगकर मुड़ेरी पर बैठना, हर सांझ, हर सुबह हर कहीं तिनके बिखेरना, और घूम-फिरकर फिर रात में घर ही में बस जाना, अपनी बढ़ती चाहने वाले गृहस्‍थ के लिए बच्‍चों की किलकारी, मीठी शरारत और निर्भय उच्‍छलता का प्रतीक है।'' यह विद्यानिवास मिश्र के 'आंगन का पंछी' (और बनजारा मन) का उद्धरण है, जो निबंध, चीन में गौरैयों के साथ किए जा रहे उक्‍त सलू‍क के प्रति आक्रोश और व्‍यथा से उपजी रचना है। विश्‍वमोहन तिवारी ने अपनी पुस्‍तक में लिखा है कि ''घोंसला बनाने के लिए इसकी दृढ़ इच्‍छाशक्ति के सामने तो मौलाना अबुल कलाम आजाद भी हारे थे'' का आशय अब तक तलाश रहा हूं।

बीते माह उच्च स्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति के जिक्र सहित समाचार आया कि फोन टॉवरों से निकलने वाले रेडिएशन की वजह से मधुमक्खियां, तितलियां, कीट और गौरेया गायब हो गई हैं। वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल की हीरक जयंती के उपलक्ष्य में रायपुर में आयोजित कार्यक्रम के दौरान 8 जनवरी को उन्‍होंने बातचीत में कहा कि हमने अपने घर के खिड़की-दरवाजों को जाली से इस तरह बंद कर लिया है कि मच्छर भी न घुस सके, फिर गौरैया कैसे घर में प्रवेश करे (पंछी भी पर न मार सके)।

25 अप्रैल 2003 को इंडियन हिस्टारिकल रेकार्ड्‌स कमीशन के 58वें सत्र के उद्‌घाटन अवसर पर छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्‍यमंत्री के उद्‌बोधन का समापन वाक्य था- 'देश का तीसरा गर्म शहर रायपुर में आपका गर्मजोशी से स्वागत करता हूं।' प्रदूषण में भी यह शहर अव्वल ही न हो, होड़ में तो जरूर होगा। इस गरम, प्रदूषित शहर के इतिहास में सन 1938 की एक रिपोर्ट में यहां संग्रहालय भवन में अपरिमित गौरैयों का प्रवेश परेशानी का सबब बताया गया है।
सन 1875 मे निर्मित संग्रहालय भवन

चटका पर चटका (संस्‍कृत में चिडि़या या गौरैया के लिए यही शब्‍द है, रायगढ़ के उड़ीसा सीमावर्ती झारा इसे चोटिया कहते हैं) यानि गौरैया पर क्लिक करें और देखें गत वर्ष से तय 20 मार्च, गौरैया दिवस के बारे में। हरेली पर चतुर्दिक हरियाली और दीपावली पर दीपों की रोशनी होती है, धन-धान्‍य से घर भरा हो तो नवाखाई और छेरछेरा, रंगों से सराबोर होली। लेकिन दिवस मनाने की अनिवार्य शर्त की तरह कमी और संकट का सयापा करना औपचारिकता बन गया है इसलिए ये 'दिवस', त्यौहार से भिन्न विलाप पर्व बन जाते हैं। अब हम क्या करें, गौरैया कम होने का रोना कैसे रोएं, कैसे हो इस दिवस की ऐसी औपचारिकता का निर्वाह। ये देखिए, शिवमंगल सिंह सुमन के शब्‍दों में 'मेरे मटमैले आंगन में फुदक रही गौरैया' या बच्‍चन जी के 'नीड़ का निर्माण फिर', 'ए‍क दूजे के लिए' और 'एक चिडि़या, अनेक चिडि़या' वाले मेरे इर्द-गिर्द के दृश्य।
इस शहर रायपुर में तो गौरैया बहुतायत थीं, हैं और मेरा विश्वास है कि रहेंगी। सो हम इस 'दिवस' को त्‍यौहार जैसा ही मान रहे हैं और क्‍यों न रायपुर को गौरैया नगर मान लिया जाए।

पोस्‍ट आपको पसंद आए तो श्रेय उन ढेरों (अब्‍लॉगर) लोगों का, जिनके पास ऐसी 'अनुत्पादक' सूचनाओं का खजाना होता है, इनमें कुछेक से मेरा संपर्क-संवाद बना रहता है। इनमें रायपुर निवासी और अब भोपालवासी अग्रज आदरणीय बाबूदा (श्री नंदकिशोर तिवारी) भी हैं, जिन्‍होंने तत्‍काल संवाद के इस युग में पत्र लिखकर आशीर्वाद-स्‍वरूप कुछ महत्‍वपूर्ण संदर्भ डाक से नहीं, बल्कि हस्‍ते भेजा। इनलोगों से मिलते रहने पर अपनी अल्‍पज्ञता के साथ वेब की सीमाओं का भान होता रहता है। यह भी लगता है कि सब हमारे ही जिम्‍मे नहीं, बड़े-बुजुर्ग भी हैं। ऐसे सुहृद, मेरी ललचाई नजर को पहचान लेते हैं और मुखर हो कर, घर-आंगन से दुनिया-जहान तक के किस्से सुनाने लगते हैं।

Friday, March 11, 2011

सबको सन्मति ...

राष्ट्रीय स्तर पर उपजी विसंगत स्थितियों का विचार करते हुए ईश्वर के बहाने गांधी ही याद आते हैं, यही कारण होगा कि मायाराम सुरजन जी के संकलन का शीर्षक है-'सबको सन्मति दे भगवान', मानों गांधीजी की प्रार्थना सभा । पुस्तक में अस्सी के दशक और नब्बे के शुरूआती वर्षों में हुई सामाजिक उथल-पुथल की पड़ताल करते लेख हैं। यह कालखण्ड है- अयोध्या विवाद, शहबानो, काश्मीर, सिख और तथाकथित ईशपुरूषों का, साथ ही रायपुर से जुड़े तत्कालीन कुछ प्रसंग, जो भारतीय सामाजिक दशाओं की निगरानी के लिए 'इण्डेक्स' माने जा सकते हैं, ऐसे ही मुद्‌दों पर वैचारिक विमर्श, इस पुस्तक में संग्रहित है। इस तरह पुस्तक की प्रकृति स्वयं 'विश्लेषण और टिप्पणी' की है, अतः अब टिप्पणी के बजाय इसकी अंतरधारा पर चर्चा अधिक समीचीन होगी।

फ्लैप का वाक्य है- ''सारी सांस्कृतिक परम्पराएं जैसे राजनीतिक एवं सामाजिक वहशीपन का शिकार होती जा रही है।'' तल्ख लगने वाली यह टिप्पणी गंभीर विचार के लिए उकसाती है। धर्म निरपेक्ष राष्ट्र, भारत- धर्म प्रधान देश है, जिसका इतिहास धार्मिक-सामाजिक समरसता के प्रमाणों से सराबोर है, किन्तु इतिहास और परम्पराओं की चर्चा में तथ्यों का चयन और उनकी व्याख्‍या, बहुधा युगानुकूल और जरूरतों के अनुसार ही होती है। यही कारण है कि 'सत्यार्थ प्रकाश', अपने प्रकाशन काल में धर्मों के तार्किक विश्लेषण का महत्वपूर्ण ग्रंथ, आज कथित उदारता और विकास के दौर में खतरनाक विस्फोटक सामग्री जैसा माना जा सकता है।

'धर्म' की पृष्ठभूमि पर रचित कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र', वस्तुतः 'राजनीति' का ग्रंथ है। यह अपने आप में स्पष्ट करता है कि यदि समाज का ढांचा आपसी मानवीय संबंध के ताने-बाने पर खड़ा होता है तो वृहत्तर सामाजिक प्रसंग, धर्मसत्ता, अर्थसत्ता और राजसत्ता के माध्यम से आकार लेते हैं, इसलिए इन तीनों सत्ताओं का आपसी तालमेल स्वाभाविक है। पुस्तक में विश्लेषण के ऐसे संकेत लगातार विद्यमान हैं और जहां भी विशेषकर राजसत्ता और धर्मसत्ता का घालमेल हुआ है, उसे प्रखर टिप्‍पणी सहित रेखांकित किया गया है। 'अर्थ' की जमीन पर खड़े 'राज' के सिर पर 'धर्म' का वितान होता है, यह समाज की सम्यक दशा भी मानी जा सकती है, किन्तु इसका व्यतिक्रम कैसे बखेड़े पैदा करता है, उसका दस्तावेज यह पुस्तक है।

पुस्तक का एक महत्वपूर्ण और विचारणीय पक्ष विधायिका, कार्यपालिका से आगे न्यायपालिका और सबसे ऊपर जनता की आवाज पर बातें हैं। प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ, अखबार से यह अपेक्षा भी स्वाभाविक है। न्यायपालिका के हस्तक्षेप की स्थिति निर्मित होना या अनावश्यक न्यायपालिका का मुंह ताकना, इस पर उच्चतम न्यायलय द्वारा एकाधिक बार टिप्पणी की जा चुकी है। इस दौर में यह भी गंभीर विचारणीय प्रश्न है कि घटनाएं और मीडिया की खबरें यदि झुठलाई नहीं जा सकती, तो क्या वे इतनी भी सच होती हैं कि उसे जनता की आवाज मान लिया जाय ॽ हाल के अनुभव से तो घटनाएं, और विशेषकर मीडिया में स्थान प्राप्त घटनाएं, जनता की आवाज का सच नहीं मानी जा सकतीं। यदि एक हकीकत यह है कि घटनाओं का विस्तार अक्सर आयोजित-प्रायोजित होता है, स्वाभाविक नहीं, तो दूसरी तरफ मीडिया के लिए 'उन्माद' की तुलना में 'सद्‌भाव' के खबर बनने की संभावनाएं भी कम होती हैं, यह संकट भी दिनों-दिन गहरा रहा है। धर्मरहित व्यक्ति के लिए धर्म-निरपेक्षता का ढोंग आसान होता है और गैर के धर्म की निंदा के लिए भी यही नकाब काम आसान करता है। मीडिया की तटस्थता और निष्पक्षता का नकाब, रोमांचक और आकर्षक खबर परोसने की राह आसान बना देता है। (बड़े खर्च के साथ मौके पर पहुंच कर सनसनी वाली खबर न निकले, तो बात कैसे बनेगी ॽ)

धर्म की उत्पत्ति भय से हुई है, इस पर मतैक्य नहीं है, किन्तु इसमें कोई दो मत नहीं कि इतिहास में बारम्बार और इस दौर में विशेषकर धर्म के साथ संकट, आशंका और भयोन्माद का माहौल रचकर धर्म के फलने-फूलने की तैयारी दिखायी देती है। ऐसा लगता है मानों हमारे देश में दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं के लिए सभी संतुष्ट हैं, अन्यथा मानसिक रूप से स्वावलम्बी स्थिति है, क्योंकि ऐसे कारक सामाजिक स्तर पर संवेदना के कारण नहीं बन पाते, किन्तु धार्मिक मामलों में पूरा देश बहुत जल्दी आश्रित होकर किसी व्यक्ति, किसी मुद्‌दे, किसी अफवाह की गिरफ्त में आ जाता है। यदि सामाजिक गतिशीलता के मुद्‌दे रोजमर्रा की जरूरतें हों, तब शायद स्थिति बदल सकती है।

फिर भी जैसा कि पुस्तक के आरंभ में कहा गया है कि इसमें सांप्रदायिकता और धर्मांधता के खिलाफ लिखे गए लेख संकलित हैं। समाचार पत्र में समय-समय पर छपे इन लेखों की अंतरधारा स्पष्ट है और इसका पुस्तकाकार प्रकाशित होना स्वागतेय है, क्योंकि इन लेखों का महत्व दैनिक और स्फुट मात्र नहीं, बल्कि दीर्घकालिक और स्थायी स्वरूप का है।

सन 2002 में पाठक मंच, बिलासपुर के लिए मेरे द्वारा तैयार की गई, अब तक अप्रकाशित पुस्‍तक चर्चा। लगा कि पुस्‍तक न पढ़ पाए हों, उनके लिए स्‍वतंत्र लेख की तरह पठनीय है, सो अब यहां प्रस्‍तुत।

Wednesday, March 2, 2011

चित्रकारी

महानदी, सोढ़ुर और पैरी संगम पर स्थित राजिम, छत्तीसगढ़ की प्राचीन नगरी है। नदी के बीच स्थापित कुलेश्वर महादेव और दाहिने तट पर राजीव लोचन मंदिर है। राजिम अंचल की पारम्परिक पंचक्रोशी के साथ  मेला, अब राजिम कुंभ के नाम से प्रसिद्‌ध है। त्रिवेणी संगम पर माघी पुन्‍नी मेला वाले छत्‍तीसगढ़ के दो प्रमुख वैष्‍णव केन्‍द्र राजिम और शिवरीनारायण क्रमशः राजिम तेलिन और जूठे बेर वाली शबरी की कथा के साथ लोक समर्थित हैं।

इस वर्ष अर्द्धमहाकुंभ के पहले दिन मेले की शायद सबसे छोटी उम्र, इनसेट चित्र वाली इस दुकानदार के सबसे कम लागत वाली दुकान पर चना बूट की कीमत पूछने पर वह यकायक जवाब न दे सकी। चेहरे पर भाव आए मानों सारा माल बिक गया तो दुकान लगाए बैठे रहने और साथ-साथ सामने मंच पर कार्यक्रम देखने की उसकी योजना पर पानी फिर जाएगा। संभव है घर की उपज दी गई हो बेचने के लिए, बिका तो मेला घूमने का जेब-खर्च निकला नहीं तो वही खुद खा कर मेले का आनंद लेना, छोटे भाई की जिम्मेदारी सहित।
साथ थे ललित शर्मा जी। पूर्णमासी का चन्द्र दर्शन और पद्‌म क्षेत्र में नदी की रेत पर इस दुकान की सजावट बना रेखांकन देखा हमने। 'राजिम' नाम की व्युत्पत्ति, लोक में राजिम तेलिन और शास्त्र में राजीव लोचन से मानी जाती है। लगा कि राजिम तेलिन के किसी अवतार ने रेखांकन कर यहां उत्फुल्ल पद्‌म, राजीव लोचन को अर्पित किया है।

राज्य गठन के दस साल पूरे हो चुके हैं, लेकिन अब भी ऐसे अवसर आते हैं, जब छत्तीसगढ़ की पहचान के लिए भिलाई का सहारा लेना पड़ता है, खासकर सफर और प्रवास में। मिनी मेट्रो भिलाई में इस्पात संयंत्र के साथ प्रतिभाएं भी हैं, पद्‌मभूषण तीजनबाई जैसी प्रसिद्ध तो कुछ-एक अनजानी सी। भिलाई की चित्रकार मनीषा खुरसवार (फोन-9617661223) की रायपुर में लगाई गई प्रदर्शनी में संयोगवश पहुंचा। कविता और संगीत की तरह चित्रकारी में भी मेरी रुचि सीमित और समझ अल्‍प है, लेकिन ललक कम नहीं। प्रदर्शनी के एक पैनल में बच्चों के बनाए ऐसे चित्र लगे थे जो मनीषा से चित्रकारी सीख रहे हैं। इन चित्रों में नकल, सीख और मौलिक कल्पना का अनुपात पता नहीं, लेकिन छः साल की अदिति और साढ़े तीन साल के शिवम्‌ के बनाए चित्र दंग कर देने वाले हैं।

अर्द्धपर्यंकासन या सुखासन में गणेश और फूल-पौधों, चिडि़या और तितली से इस तरह पूरा गया चित्र।

तरह-तरह के गुब्बारों में खीस निपोरते, चौंके, खिसियाए, हंसते-रोते चेहरे वाले कोई हवाई जहाज, कोई हेलिकॉप्‍टर, कोई रॉकेट के आकार का, कोई पंछी, तितली और हॉट बैलून जैसा भी।

बगीचे में कोई झूला, फिसलपट्टी, सी-सॉ या राइड खाली नहीं। दो सहेलियों ने छोटी बच्‍ची को झुलाने का इंतजाम किया अपनी चोटियां जोड़कर और उस पर साथ झूला झूलने लगी चिडि़या। अपने इस कौतुक का आनंद ले रही हैं दोनों सहेलियां। फूल-पौधा, तितली, खरगोश, चूहा और चिडि़या यहां भी नहीं छूटे हैं।

अब कुछ लोक-प्रचलित अभिप्राय, जिनके साथ मैं आसानी से, सहज ही समष्टि होने लगता हूं। इनकी कम्‍प्‍यूटर प्रति तैयार की है आगत शुक्‍ल जी ने, जो लोक अध्‍येता हैं ही, कलम और की-बोर्ड/माउस पर एक समान अधिकार रखते हैं।
मालवी संजा
मालवी संजा
मधुबनी माछ-मछरिया 
छत्‍तीसगढ़ी कुसियारी

इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ से कला की पढ़ाई किए संघर्ष गौतम भी भिलाईवासी हैं, पिछले दिनों मुलाकात के दौरान उन्होंने अपने बनाए कुछ सुंदर चित्र दिखाए, जिनमें अनूठा यह चित्र था। संघर्ष ने स्पष्ट किया कि चित्र का आइडिया उनका मौलिक नहीं है, मुझे उनकी साफगोई के कारण चित्र अधिक भाया।

शास्त्रों में कहा गया है कि दृष्टि-मल के कारण हम जीवों में भेद देखते हैं, वरना सभी एकाकार हो कर पशुपतिनाथ शिव हैं।

आज महाशिवरात्रि है, राजिम अर्द्धमहाकुंभ संपन्न हो रहा है।
मेले का आनंद आप भी लें और शिव विवाह के बोनाफाइड बाराती का आशीर्वाद भी, बैठे ठाले, एकदम मुफ्त।

माघ मेले के पुण्यार्थी और भोले बाबा के हम मनसा बाराती की यह स्‍पेशल पोस्ट सुधिजन को बहकी सी लगे तो हमारा ब्लॉगर पर्व सेलिब्रेशन सफल सम्पन्न हुआ।
(चित्रों के सर्वाधिकार सुरक्षित)